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बाँध की राजनीतिः भारत, चीन और सीमा-पार नदी

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04/11/2013
रोहन डिसूज़ा

हाल ही के वर्षों में जब भी भारत और चीन के बीच शिखर-वार्ताएँ हुई हैं, जल-विवाद का मुद्दा मुखर होकर समझौता-वार्ताओं में छाया रहा है. सबसे अधिक उलझन वाला मुद्दा रहा है, भीषण और क्रोधी स्वभाव वाली सीमा-पार की नदी, येलुज़ंगबु-ब्रह्मपुत्र-जमुना (वाईबीजे) प्रणाली, जिसका अपना पूरा जलमार्ग तीन प्रभुता-संपन्न देशों (चीन, भारत और बांगला देश) से होकर गुज़रने के बाद ही खत्म होता है.

कुछ हद तक तो भारत की परेशानी यह है कि वह चीन के साथ कोई भी जलसंधि या जल-वितरण समझौता करने के लिए वचनबद्ध होने की स्थिति में नहीं है. इसके अलावा, नदियों के बारे में परस्पर सरकारी स्तर पर विचार-विमर्श करने के लिए जल आयोग गठित करने या कोई और संस्थागत उपाय करने के लिए अपेक्षित  सभी प्रयासों की स्थिति भी दुःखद है. इस बीच चूँकि भारत एक ऐसी काल्पनिक फिसलन-भरी ढलान पर परेशान होकर बैठा है और यह भी भली-भाँति जानता है कि ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपरी तट पर बैठा हुआ चीन सभी जलीय तथ्यों के मामले में निर्णायक भूमिका में है. असल में जल प्रवाह के बारे में नियमित और विश्वसनीय जानकारी जुटाना भी जल संबंधी विवाद का एक चिंताजनक पहलू  है. इस बात में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि भारतीय पक्ष चीन के साथ आधे मन से ही “बाढ़ संबंधी डेटा पर करार”  करने के लिए उत्सुक होते हुए भी भारी आवश्यकता की वजह से लगातार आगे बढ़ रहा है.

20 मई, 2013 को नयी दिल्ली में नये चीनी शासनाध्यक्ष ली केकियांग की पहली भारत यात्रा के अवसर पर चीन के साथ नदी के डेटा वितरण की पिछली व्यवस्था को फिर से लागू कर दिया गया है, जिसमें यह व्यवस्था की गयी है कि जून और अक्तूबर के बीच बाढ़ के मौसम के दौरान जल संबंधी डेटा दिन में दो बार जारी किया जाएगा. कृषि संबंधी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए  “जल-सक्षम सिंचाई को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से” द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के लिए भारत के जल संसाधन मंत्रालय और चीन के राष्ट्रीय विकास व सुधार आयोग के बीच एक और समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए थे. द्विपक्षीय सहयोग की उसी भावना के अनुरूप समझौता ज्ञापन के अंतर्गत भारतीय पक्ष ने चीन को इस बात की सूचना देते हुए यह प्रतिबद्धता भी जतायी थी कि चीन द्वारा दिये गये डेटा से भारत को किस प्रकार अपने क्षेत्र में बाढ़ का पूर्वानुमान लगाने में  और उसके प्रभाव को कम करने में मदद मिलती है. अंततः एक अच्छा निर्णय यह हुआ कि समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर होने के बाद जल विज्ञान संबंधी कार्यान्वयन योजना पर भी कार्रवाई होगी, जिसके अंतर्गत चीन जल-स्तर में आने वाली किसी भी असामान्य बढ़त या छोड़े गये पानी की सूचना भारत को देगा, क्योंकि इसी बढ़त या छोड़े गये पानी से ही ब्रह्मपुत्र में अचानक बाढ़ आने की आशंका बनी रहती है. सहयोग की भावना से पनपती विभिन्न प्रकार की यह आपसी समझ अक्तूबर 2013 में डॉ. मनमोहन सिंह के चीन के सरकारी दौरे से और भी आगे बढ़ी है. इस बार के समझौता ज्ञापन में 15 मई (1 जून के बजाय ) से 15अक्तूबर तक की अवधि के जल विज्ञान से जुड़े डेटा की रिपोर्ट देने / साझा करने में अधिक उदारतापूर्वक रियायतें दी गयी हैं.    

हाथ मिलाने, मिलनसारिता और सद्भाव की छाया की ओट में कुछ अंधेरे पहलू और असली डर भी हैं, जिनके कारण भारतीयों की मुस्कान आधी रह जाती है. कथित रूप में चीन का मंसूबा है कि वह येलुज़ंगबु के मुख्य ठिकाने पर ग्यारह बाँध बनाये और उन्हें कमीशन भी कर दे. एक अनुमान के अनुसार उनमें से नौ बाँधों पर जलप्रपात होंगे और शेष दो बाँधों पर जलाशय होंगे. बुनियादी ढाँचा संबंधी इस गणना के आधार पर नामचा बरवा मोड़ (विशाल मोड़) से ठीक पहले के ढाँचों के लिए चीनियों का लक्ष्य है कि वे 40,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करेंगे जबकि उनका दावा है कि वे जल-प्रवाह छोड़ने से पहले केवल अस्थायी रूप में ही रोक लगाएँगे.   

परंतु भारत सरकार को आशंका है कि चीन ने विशाल ब्रह्मपुत्र के फैलाव को हाइड्रो-डॉलर पावर हाउस में बदल देने की विशाल रणनीति की आधी जानकारी का ही खुलासा किया है. कुछ अनुमानों के अनुसार लगभग 168 संभावित जल-विद्युत परियोजनाओं को उस क्षेत्र की असंख्य पहाड़ियों और पहाड़ी गर्तों के मोड़ों के अंदर चिह्नित कर लिया गया है. भारतीय केंद्रीय बिजली प्राधिकरण के अनुमान इस क्षेत्र में कम से कम 58,971 मेगावाट हाइड्रोपावर बनाने की क्षमता है. इस जल-विद्युतीय प्रकल्प में अकेले अरुणाचल प्रदेश को ही 50,328 मेगावाट जल-बिजली पैदा करने के लिए चिह्नित किया गया है. भारत के अनेक योजनाकारों को आशा है कि इसप्रकार हिमालय का यह पूर्वी अंचल बिजली का एक ऐसा विशाल सौकेट बन गया है, जहाँ से देश की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति की जानी चाहिए. इसे दूसरे ढंग से भी देखा जा सकता है. इस क्षेत्र में अनेक पर्वत, लहराती पहाड़ियाँ और घनी और हरी-भरी वनस्पतियाँ हैं, जिन्हें एक बाधित भूगोल में बदला जा सकता है. यह एक ऐसी स्थलाकृति हो जाएगी, जिसके आर-पार सिलसिलेवार बिजली के खंभे लगे होंगे और इस चहल-पहल में बाँधी गयी नदी से उत्पन्न ऊर्जा को गंगा क्षेत्र के भारी आबादी वाले और बिजली के संकट से जूझने वाले समतल मैदानी इलाकों में भेजा सकेगा. लेकिन वोल्टेज और मैगावाट का पूरा सपना देखने से पहले ही असंतोष और चुनौती-भरी संकटपूर्ण वास्तविकताएँ पहले ही सिर उठाने लगी हैं.

भारत के अब तक के प्रच्छन्न उत्तर-पूर्वी भूभाग में बाँध-विरोधी स्वर तेज़ी से मुखर होने लगे हैं. असम व अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगा लोअर सुबनसिरी ज़िला लोअर सुबनसिरी नदी पर निर्माणाधीन हाइड्रो-इलैक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के विरोध में नाटकीय और अप्रत्याशित लोकप्रिय लहर का केंद्र बन गया है. यह विरोध इतना प्रखर था कि असम सरकार को दिसंबर 2006 में एक विशेषज्ञ समिति गठित करने के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसे लोअर सुबनसिरी नदी के हाइड्रो-इलैक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के परिणामस्वरूप “नीचे की ओर बहने वाले जल के बहाव के प्रभाव के अध्ययन” का काम सौंपा गया. इस विशेषज्ञ समिति में गुवाहाटी विश्वविद्यालय, डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय और आईआईटी, गुवाहाटी जैसे असम के तीन सर्वाधिक प्रख्यात शैक्षणिक संस्थाओं में कार्यरत सिविल इंजीनियरी, पर्यावरण विज्ञान, जैविक विज्ञान और प्राणि विज्ञान के प्रोफ़ेसरों को रखा गया था. जून, 2010 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में अनपेक्षित रूप में समिति ने यह निष्कर्ष निकाला है कि उनकी चिंता का विषय डैटा का अभाव नहीं है, बल्कि नदी और वहाँ बसे लोगों से संबंधित जो संचित ज्ञान है, उसकी उपेक्षा का खतरा मंडरा रहा है.

विस्तृत रिपोर्ट के निष्कर्षों से पता चलता है कि ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली की विशेषता मुख्यतः उसके जल की मात्रा नहीं, बल्कि नदी की पारिस्थितिकीय अखंडता है, जो वस्तुतः उसके बदलते प्रवाह और अस्थिर स्पंदन पर निर्भर करती है. ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली पर निर्भर समुदायों की आजाविका के तौर-तरीके नदी के विभिन्न उपयोगों जैसे मछलीपालन, बाढ़ के उतरने पर की जाने वाली खेतीबाड़ी, आसपास की गीली ज़मीन से प्राप्त अनेक प्रकार की जलीय वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की फ़सलों जैसे विविध प्रकार के संसाधनों पर ही निर्भर करते हैं. वास्तव में उनकी आजीविका के तौर-तरीके नदी के विभिन्न प्रकार के मिज़ाजों और अस्थिर प्रवाह पर निर्भर करते हैं. 

इस क्षेत्र में रहने वाले नदी पर आधारित अनगिनत समुदायों की नज़रों से ब्रह्मपुत्र नदी को देखते हुए विशेषज्ञ समिति वास्तव में अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से नये सिरे से वस्तुतः इसे बौद्धिक रूप में स्वीकारने लगी है. इससे विशेषज्ञों के स्तर पर एक ऐसा बदलाव महसूस किया जा रहा है जिससे नदियों को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा और उनका बेहतर प्रबंधन किया जा सकेगा. यह उल्लेखनीय बात है कि “बाढ़ के मिज़ाज” और प्रवाह की परिवर्तनशीलता के केंद्रबिंदु पर ध्यान केंद्रित करके ही नदी को बाढ़ के मैदानों, गीली ज़मीन, दलदल और मुहाने वाले क्षेत्रों के बीच के महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय संबंधों और आपसी संवादों के एक समुच्चय के रूप में देखा और समझा जा सकता है. नदी और बाढ़ के मैदानों को बाढ़-तंत्र के ज़रिये अलग ढंग से देखा जाए और एक जीवंत पारिस्थितिकीय तंत्र या ईको सिस्टम के रूप में उसे निर्मित किया जाए और उसे जारी रखा जाए.

इस जीवंत पारिस्थितिकीय तंत्र या ईको सिस्टम की परिकल्पना उस इंजीनियरी रूपक से बिल्कुल अलग होगी जिसमें नदी को मात्र कुछ मानकीकृत मात्राओं के कुल जमा, डेटा सैट और सांख्यिकीय औसतों के रूप में ही देखा जाता है. सारी बात का मर्म यह है कि यही भारत की मुश्किल और कमज़ोरी भी है जो उसके लिए चीन के साथ जलविज्ञान संबंधी सौदेबाजी को और भी कठिन बना देती है. वाईबीजे को लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी का एक महत्वपूर्ण स्रोत स्वीकार करने के बजाय भारतीय वार्ताकार उसे मात्र बाँध की संकीर्ण राजनीति के रूप में देखना पसंद करते हैं. निचले तट पर बसे होने के कारण पासा पूरी तरह से उनके विरुद्ध घूमने लगा है जो मात्र डेटा पर ही पूरा ज़ोर देते हैं. इसके बजाय वाईबीजे को बचाने का नया और मज़बूत उपाय यही है कि नदी के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों को और विशेष रूप से पारिस्थितिकी और क्षेत्र की स्थिरता से संबंधित उनकी आजीविका के अनूठे तौर-तरीकों को उजागर करते हुए उसे आवश्यक महत्व प्रदान किया जाए.

 

रोहन डिसूज़ा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान स्कूल के विज्ञान नीति अध्ययन केंद्र में सहायक प्रोफ़ेसर हैं. वे कैसी फ़ॉल (पतझड़) 2013 के विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>