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शिक्षा और भारत के श्रम बाज़ार के बीच अंतराल

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17/12/2018
ऐमरिक डेवीज़

पिछले तीस वर्षों में भारत सरकार ने अपने नागरिकों को शिक्षा देने का उल्लेखनीय कार्य किया है. इसकी शुरुआत राज्य-स्तर पर की गई थी. इस दिशा में सन् 1984 में शुरू किया गया आंध्र प्रदेश का प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम और सन् 1987 में राजस्थान में शुरु किया गया शिक्षाकर्मी कार्यक्रम उल्लेखनीय था. इसकी परिणति सन् 2009 में केंद्र द्वारा लागू किये गये शिक्षा-अधिकार अधिनियम के रूप में हुई. शिक्षा को समर्पित यह कानून-सम्मत चरणबद्ध कार्यक्रम अद्भुत था. इसके कारण शिक्षा का सचमुच विस्तार हुआ और प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की व्यवस्था हो गई. निम्नलिखित आँकड़ों में मैंने ज़िला शिक्षा सूचना प्रणाली (DISE) से प्राप्त ऐतिहासिक आँकड़ों का उपयोग किया है. स्कूल के निर्माण के वर्ष से संबंधित इन आँकड़ों का इस्तेमाल मैंने यह दर्शाने के लिए किया है कि केंद्र सरकार की तीन प्रमुख शिक्षा-नीतियों (सन् 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति, सन् 1994 के ज़िला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम और उपर्युक्त शिक्षा-अधिकार अधिनियम) के संदर्भ में देश-भर के सरकारी स्कूलों में कितनी वृद्धि हुई है. 

इस बात को ध्यान में रखते हुए कि केंद्रीय स्तर पर सर्वप्रथम आरंभ किये गये सर्वशिक्षा अभियान को पारित हुए लगभग सोलह वर्ष बीत चुके हैं, इन तमाम गतिविधियों से आखिर क्या हासिल हुआ ? यह उत्साहवर्धक है कि पिछले वर्षों की इन तमाम गतिविधियों से ठोस उपलब्धियाँ हासिल की गई हैं. भारत में शिक्षा को सर्वजनसुलभ बना दिया गया है और इसके माध्यम से इतने अधिक छात्रों (छात्राओं के मिलाकर) को शिक्षित किया गया है, जितना पहले कभी नहीं किया गया था. इन कार्यक्रमों के ज़रिये स्कूलों का निर्माण किया गया है, बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलवाया गया है और अब वे अपेक्षाकृत अधिक लंबे समय तक स्कूलों में पढ़ते हैं. इसके अलावा, लगता है कि इसके कारण रोज़गार के अवसरों और मज़दूरी की दरों में भी वृद्धि हुई है. कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डियागो के गौरव खन्ना ने अपने आलेख में यह निष्कर्ष निकाला है कि स्कूली शिक्षा के वर्षों में वृद्धि होने के कारण श्रम बाज़ार में भी अधिक लाभ अर्जित किया गया है और शिक्षा के प्रसार के लिए शुरू की गई ज़िला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम जैसी व्यापक नीतियों के कारण अति-कुशल कामगारों से कम-कुशल कामगारों की ओर आय का पुनर्वितरण होने लगा है. इन वास्तविक उपलब्धियों के लिए हर्षोल्लास के साथ खुशियाँ भी मनाई जा सकती हैं, लेकिन यहीं आकर खुशियों पर विराम भी लग जाता है.

जहाँ तक सीखने का सवाल है, यह चित्र अधिक धूमिल लगता है. एक गैर-सरकारी संस्था असर (ASER) की वार्षिक शिक्षा-स्थिति रिपोर्ट (ASER) के नतीज़ों के निकलने के एक साल बाद जारी की गई इस रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक स्तर के छात्रों में सीखने की प्रक्रिया धीमी पड़ गई है और इसमें सुधार भी नहीं हो रहा है. सन् 2017 में असर ने प्राथमिक स्तर के छात्रों के बजाय अपना ध्यान 14-18 वर्ष के अपेक्षाकृत बड़ी आयु के बच्चों पर केंद्रित कर लिया है और यह जानने की चेष्टा करने लगे हैं कि उनकी क्या स्थिति है. यहाँ भी हालात बेहतर नहीं हैं. इस आयु-समूह के छात्रों में गणित और पढ़ने की क्षमता बहुत कम है, जो सरकार के अपने निर्धारित मानकों से भी बहुत नीचे है. हालाँकि सरकार के अपने राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के अनुसार स्थिति काफ़ी उत्साहवर्धक है, लेकिन इसे बहुत संतोषजनक नहीं माना जा सकता. 2009 के अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन परीक्षण (जिसका लोकप्रिय नाम PISA है) में भारत का निष्पादन इतना विवादग्रस्त रहा कि भारत ने PISA में दुबारा भाग ही नहीं लिया ( हालाँकि भारत ने सन् 2021 के लिए इसमें फिर से भाग लेने का निर्णय कर लिया है). सीखने के गिरते हुए स्तर की जानकारी बहुत लोगों को अच्छी तरह से हो गई है.

इन दो परस्पर-विरोधी परिणामों से क्या निष्कर्ष निकाला जाए? एक ओर शिक्षा की पहुँच में विस्तार हुआ है और इसके कारण श्रम-बाज़ार में वास्तविक लाभ भी अर्जित किया गया है और आय का पुनर्वितरण अति-कुशल कारीगरों से कम-कुशल कारीगरों की ओर हो रहा है. दूसरी ओर छोटे और बड़े बच्चों में सीखने का स्तर निम्न है और इसमें कोई सुधार भी नहीं हो रहा है और अन्य देशों की तुलना में यह बहुत कम है. स्कूल प्रणाली से बाहर निकलने और कामगारों के रूप में काम शुरू करने वाले किशोर वय के बच्चों की बढ़ती जनसांख्यिकीय तादाद के कारण नई चिंता उभरने लगी है. शिक्षा प्रणाली से जुड़ी उम्मीदों पर पानी फिरता जा रहा है और उसकी गुणवत्ता कम होती जा रही है और इसका दुष्प्रभाव दुनिया-भर के सामने किये गये तमाम वायदों पर भी पड़ सकता है.

भारत के युवाओं की आकांक्षाओं और वास्तविकताओं के बीच के अंतर को रेखांकित करने की प्रक्रिया में पिछले कुछ सालों में एक नई गैर-कथात्मक शैली उभरकर सामने आई है. पत्रकार सोमिनी सेनगुप्ता और स्निग्धा पूनम दोनों ने आकांक्षाओं से भरे इस नए युवा वर्ग को आधार बनाकर कुछ पुस्तकें लिखी हैं और पाया है कि अधिकांश युवाओं की आंकाक्षाओं पर तुषारापात हो जाता है. दोनों ही लेखकों की रचनाओं में दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते अनेक युवा भारतीयों के किरदारों पर रोशनी डाली गई है. अपनी शैक्षणिक उपलब्धियों से उत्साहित होकर जब वे वयस्कों की दुनिया में प्रवेश करते हैं तो उनकी आशाओं पर पानी फिर जाता है. जो भी काम उन्हें मिलता है या तो वह उनकी अपेक्षाओं से कम होता है या फिर उन्हें कोई औपचारिक काम मिल ही नहीं पाता. इनमें से कुछ युवा क्रुद्ध हो उठते हैं या फिर हताश और निराश होकर अलग-थलग पड़ जाते हैं. इसलिए जहाँ शिक्षा ने असमानताओं को कम किया है, वहीं उनकी उम्मीदों पर पानी भी फेर दिया है. इस तरह की आशाओं-आकांक्षाओं को मापने का कोई मानदंड भी हमारे पास नहीं है.

मेरे अपने शोध-कार्य से भी इसी प्रकार की चिंता व्यक्त होती है कि जो बच्चे स्कूल में ज़्यादा समय तक बिताते हैं उन पर भारत की अनेक सार्वजनिक संस्थाएँ कम भरोसा करती हैं. भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण का उपयोग करते हुए मैंने यह पाया है कि जिन बच्चों ने ज़िला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (DPEP) के अंतर्गत शिक्षा पाई है और उसके बाद जब वे घरों में रहने लगते हैं तो सार्वजनिक संस्थाओं का उन पर भरोसा कम होने लगता है. सबसे अधिक चिंता की बात यही है कि ज़िला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रमों (DPEP) के ये बच्चे आज वयस्क हो गए हैं और उनकी राजनैतिक पसंद और आर्थिक आकांक्षाएँ भी उभरने लगी हैं. ऐसा क्यों हो रहा है ? आँकड़ों से पता चलता है कि श्रम-बाज़ार के विभिन्न क्षेत्रों में असंगठित और अल्पकालीन ठेके पर मज़दूरी करके ये युवा अधिक पैसा कमा लेते हैं. इसके अलावा, आकांक्षाओं और वास्तविकता के बीच के अंतराल के कारण इनमें आक्रोश पैदा होता है.

इससे लैटिन अमेरिका जैसे विश्व के अन्य क्षेत्रों में पनपती गतिविधियों को भी समझा जा सकता है. इसी कारण युवाओं की टोलियाँ बन जाती हैं, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में “Los NiNis ” कहा जाता है, जिसका अर्थ है, “Ni Estudian, Ni Trabajan” अर्थात् वे टोलियाँ, “जो न पढ़ती हैं और न काम करती हैं.” विश्व बैंक के अनुसार, लैटिन अमेरिका के 15-24 की आयु-वर्ग के लगभग 20 प्रतिशत युवा न तो स्कूल में पढ़ते हैं और न ही कोई काम करते हैं.

ऐसे हालात में भारत और अन्य देश क्या कर सकते हैं ? इसके दो समाधान हो सकते हैं : स्कूलों को सुधारा जाए या स्कूल -से- काम के संक्रमण की प्रक्रिया में सुधार लाया जाए. ज़ाहिर है जहाँ एक ओर स्कूलों में सुधार लाना महत्वपूर्ण है, वहीं और भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है. इस तरह की समस्याओं के लिए स्कूलों में सुधार लाना एकमात्र उपाय नहीं है. इससे श्रम-बाजार तक पहुँचने वाले युवाओं की अधिकांश समस्याओं के समाधान की कोई संभावना नहीं है. इससे उनके सपने पूरे नहीं हो सकते, बल्कि इसके कारण शिक्षा प्रणाली पर उनका भरोसा और भी कम हो जाएगा. स्कूलों को अपनी विफलताओं और बाहरी दुनिया की विफलताओं के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हमें स्कूल-से-काम के संक्रमण पर ध्यान देना होगा. और इस संबंध में अधिकांश उपाय सरकारी स्तर पर ही करने होंगे. भारत की आबादी में हुई वृद्धि के अनुरूप सबसे अधिक वांछित सरकारी नौकरी में वृद्धि नहीं हुई है. देवेश कपूर के अनुसार पिछले एक दशक में सरकारी नौकरियों में असल में कमी आई है. इसलिए सरकारी क्षेत्र का विस्तार ही इसका एकमात्र समाधान है. हालाँकि इससे भी नौकरी के इच्छुक सभी लोगों को रोज़गार नहीं मिल पाएगा, लेकिन इसकी मदद से कुछ लोगों को तो नौकरी मिल ही जाएगी और भारत के सार्वजनिक प्रबंधन के कुछ मामले भी सुलझ जाएँगे. इसके अलावा, सामान्य प्रशिक्षण, उसके अनुरूप श्रम-बाज़ार और युवा वयस्कों को नियोजित करने के लिए नियोक्ताओं का  समन्वित सहयोग भी मिलना चाहिए. इस संबंध में मध्यम और निम्न आय वाले देशों के नतीज़े उत्साहवर्धक हैं. लाभकर्ताओं के लिए तैयार किये गए कार्यक्रम भागीदारों के साथ अनुवर्ती कार्रवाई करने के लिए अच्छे कार्यक्रम हैं और इनमें प्रशिक्षण और रोज़गार के अनुरूप ऐसे अनेक पूरक हस्तक्षेप भी शामिल हैं, जिन्हें दीर्घकालीन सफलता भी मिली है. और इसका विस्तार इस हद तक किया जाना चाहिए कि भारत के स्कूल-से-काम तक के संक्रमण की प्रक्रिया पर इसका गहरा प्रभाव पड़े, लेकिन इसके लिए कुछ हद तक भारत सरकार के सहयोग की भी आवश्यकता होगी.

ज़ाहिर है कि केवल भारत ही नहीं, अन्य देशों के लिए भी यह बहुत बड़ा सवाल है कि युवाओं को व्यापक समाज के साथ कैसे जोड़ा जाए, लेकिन इसका समाधान केवल शिक्षा पर ही निर्भर नहीं है. जहाँ एक ओर भारत और अन्य देशों की शिक्षा प्रणाली में भी अनेक कमियाँ हैं, वहीं समाज के सामने यही सवाल है कि स्कूल की अनिवार्य शिक्षा खत्म करने के बाद काम की तलाश करने वाले युवाओं को समाज से कैसे जोड़ा जाए. यहाँ यह भी समझ लेना होगा कि श्रम-बाज़ारों और व्यापक समाज के बीच समन्वय के अभाव में शिक्षा प्रणाली से निराशा और हताशा की स्थिति उत्पन्न होने लगेगी. W.E.B. ड्यूबॉइस के शब्दों में 21 वीं सदी की समस्या युवा रोज़गार की समस्या है.

ऐमरिक डेवीज़ शिक्षा के हार्वर्ड ग्रैजुएट स्कूल में शिक्षा के सहायक प्रोफ़ेसर हैं ; अंतर्राष्ट्रीय मामलों के वैदरहैड केंद्र में फ़ैकल्टी एसोसिएट हैं ; और दक्षिण एशियाई राजनीति के संयुक्त सैमिनार ब्राउन- हार्वर्ड-M.I.T में सह-संयोजक हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919