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अनजान बने रहने में ही आनंद हैः भारत में असमानता का सच

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08/10/2018
संजय चक्रवर्ती

बार-बार होने वाले धमाकों की तरह मीडिया और ट्विटर खाताधारकों के बीच छोटा-मोटा वाक् युद्ध ही छिड़ गया है कि भारत में कितनी असमानता है और यह किस हद तक बढ़ती जा रही है. इस बार इस बहस की शुरुआत हुई जेम्स क्रैबट्री की पुस्तक द बिलियनर राज के प्रकाशन से. पिछले साल भी इसी तरह की घटना हुई थी जब ल्यूक चांसेल और थॉमस पिकेटी का एक आलेख “भारतीय आय में असमानता, 1922-2015 : ब्रिटिश राज से बिलियनर राज तक ?” प्रकाशित हुआ था. दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि भारत में आर्थिक असमानता बहुत अधिक है और बेहद संपन्न लोगों के वर्ग में लगातार वृद्धि होने के कारण यह असमानता बढ़ती जा रही है. यही कारण है कि मौजूदा समय में भारत में आय की असमानता सबसे अधिक रही है. लगभग यही निष्कर्ष क्रेडिट स्ईस और ऑक्सफ़ैम द्वारा प्रकाशित संपत्ति संबंधी नियमित रिपोर्टों से निकाला जा सकता है.

लगता है कि कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी हैं जो इस बात से सहमत नहीं हैं. इनमें से कुछ प्रसिद्ध बुद्धिजीवी हैं, जैसे, मॉन्टेक सिंह अहलूवालिया, जगदीश भगवती और सुरजीत भल्ला. यह असहमति दो प्रकार की है. सर्वप्रथम, असमानता के प्रति उपेक्षा का भाव, क्योंकि भारत में इसका कोई महत्व नहीं है. इसके बजाय, गरीबी की ओर नज़र दौड़ाएँ, संतुष्टि के भाव का सर्वेक्षण करें या फिर मीडिया के अतिरंजित प्रसंगों को छोड़कर कुछ और देखें. संक्षेप में, यहाँ मत देखो और कहीं और देखो. दूसरे, इसकी प्रविधि पर ही बाल की खाल निकाली जाती है. जो लोग हर जगह बढ़ती असमानता ही देखते हैं, उनकी प्रविधि को लेकर कोई समस्या हो सकती है. इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि अगर “उचित” प्रविधि अपनाई जाए तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि भारत में असमानता का स्तर कम, कम से मध्यम और उसके बाद यह स्तर अगर बढ़ता भी है तो धीरे-धीरे ही बढ़ता है.

इन तमाम मुद्दों के आलोक में मैं अपना ध्यान यहाँ केवल एक ही मुद्दे पर केंद्रित रखूँगा और वह है प्राविधिक मूल्यांकन. मुझे लगता है कि भारत में असमानता के सच को जानना असंभव है. यहाँ कितनी असमानता है और किस दर से इसमें वृद्धि हो रही है, इसका कोई मापदंड नहीं है और लंबे समय कोई मापदंड मिलेगा, इसकी भी कोई संभावना नहीं है. मेरे कहने का मतलब है कि आय का कोई सरकारी आँकड़ा नहीं है और धन-संपत्ति का आँकड़ा भी बहुत अपर्याप्त है. सबसे अधिक विश्वसनीय आँकड़ों से यही पता चलता है कि हमारे देश में असमानता का स्तर बहुत अधिक है और उसमें बहुत अधिक वृद्धि भी हो रही है, भले ही वृद्धि की यह दर विश्व में सबसे अधिक न हो.

इसका मुख्य कारण यह है कि हम असमानता के इस वास्तविक स्तर से परिचित नहीं है कि भारत में आय/धन-संपत्ति के वितरण का ऊपरी सिरा बहुत रहस्यात्मक है. निम्नलिखित विवरण को देखकर आ पाएँगे कि सर्वेक्षण के आँकड़े व्यर्थ हैं. सर्वेक्षक कभी भी उन घरों या फाटक वाले अपार्टमेंट में घुस भी नहीं पाते, जिनमें उच्च वर्ग और विशिष्ट उच्च वर्ग के लोग रहा करते हैं और उनकी आमदनी या संपत्ति के बारे में कोई सवाल नहीं कर पाते. और अगर किसी चमत्कार के कारण वे कुछ सर्वेक्षण करने में कामयाब हो जाते हैं तो भी ज़रूरी नहीं है कि उन्हें सही जानकारी ही बताई गई हो. इसलिए असमानता से जुड़े सर्वेक्षण पर आधारित सभी आँकड़े फालतू हैं. यह बात वैसी ही है जैसे एक डुबकी लगाकर हम समुद्र की गहराई को मापने का दावा करें. निश्चय ही कर संबंधी आँकड़ों से कुछ सूचनाएँ तो मिलती ही हैं (और चांसल और पिकेटी जैसे विश्लेषक इसे जुटाने के लिए भरसक प्रयास भी करते हैं), लेकिन इस पूरी कवायद में भी आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा ही कवर हो पाता है और उसमें भी “पूरा बयान नहीं” होता और इसी बात की बदनामी भी होती है. चूँकि किसी भी समाज में असमानता की सीमा पूरी तरह से उच्च वर्ग के लोगों पर ही निर्भर होती है, इसलिए बहुत ही कम वास्तविक सूचनाएँ मिल पाती हैं. इसका अर्थ यह है कि भारत में असमानता के सच को लेकर हम अँधेरे में भटक रहे हैं.

आइए हम कुछ उदाहरणों के साथ विवादग्रस्त आँकड़ों की सीमाओं पर विचार करें. सबसे पहली बात तो यह है कि भारत सरकार आय संबंधी आँकड़ों का संग्रह नहीं करती. सरकार खर्च के आँकड़ों का संग्रह करती है. अर्थात् लोग कितना कमाते हैं, इसके बजाय वे ये आँकड़े एकत्र करते हैं कि लोग कितना खर्च करते हैं. 2011-12 के आसपास (सबसे नवीनतम आँकड़े यही हैं) NSSO के सैम्पल में सबसे अधिक खर्च करने वाले वर्ग में, जैसा कि माना जाता है, शहरी भारत के पाँच प्रतिशत उच्च वर्ग के लोग थे. सर्वाधिक खर्च करने वाले इस वर्ग का औसत खर्च प्रति वर्ष रु.123,000 ($2,300 अमरीकी डॉलर से भी कम) था. यह बिल्कुल व्यर्थ की बात है. आय के अगर कोई देशव्यापी विश्वसनीय आँकड़े हो सकते हैं तो उनका संग्रहण भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण (IHDS) द्वारा किया जाता है. IHDS के 2004-05 के सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 43,000 परिवारों में से सबसे अधिक आय वाले व्यक्ति की कमाई प्रतिवर्ष 2.2 मिलियन रुपये (उस समय के $48,000 अमरीकी डॉलर) से भी कम हुई. इस पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता. ऐसा लगता है कि IHDS के सर्वेक्षण में उच्च वर्ग के एक से दो प्रतिशत कमाई करने वाले लोगों के आँकड़े शामिल ही नहीं हैं. NSSO के खर्च के सर्वेक्षण में तो इससे भी अधिक लोगों अर्थात् कुल मिलाकर शायद उच्च वर्ग के पाँच प्रतिशत लोगों के आँकड़े बिल्कुल भी शामिल नहीं हैं.

संपत्ति के आँकड़े भी मुश्किलों से भरे हैं. ये आँकड़े हमें मिलते हैं NSSO के अखिल भारतीय ऋण व निवेश सर्वेक्षण (AIDIS) से. एक बड़ी समस्या तो यही है कि AIDIS ज़मीन का मूल्यांकन कैसे करता है. वही ज़मीन उनकी गणना के अनुसार कुल संपत्ति का 85 प्रतिशत है, लेकिन हम अभी इसकी चर्चा नहीं करेंगे. हम अपना ध्यान इस तथ्य पर केंद्रित करते हैं कि संपत्ति से संबंधित भारत के आधिकारिक सर्वेक्षण के पास भारत के संपन्न लोगों की कोई जानकारी नहीं है. उदाहरण के लिए, उस अवधि में जब भारत के सट्टा बाज़ार में जबर्दस्त उछाल (पिछले दशक में) आया था तो AIDIS के आँकड़ों में दिखाया गया था कि उनके सर्वेक्षण नमूने में कुल संपत्ति के शेयर / स्टॉक लुढ़क कर 0.13 प्रतिशत (एक प्रतिशत एक दहाई भाग) रह गए. यह कतई विश्वसनीय नहीं है. अगर हम  BSE पर उपलब्ध सभी स्टॉक के बाज़ारी पूँजीकरण को देखें तो 2018 के आरंभ में (सकल घरेलू उत्पाद के 150 ट्रिलियन रुपये के मुकाबले स्टॉक के 135 ट्रिलियन रुपये) यह देश के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग बराबर ही हो गया था. AIDIS के नमूनों में उच्च वर्ग और विशिष्ट उच्च वर्ग पूरी तरह से नदारद था.  वस्तुतः ये वे लोग हैं जिनके पास स्टॉक की मिल्कियत होती है. इसके बावजूद, ऑक्सफैम और क्रेडिट सुइस जैसे संगठनों द्वारा संपत्ति की असमानता की गणना दुनिया में सर्वाधिक गणनाओं में से एक है.

अगर पूरी आबादी की आय और संपत्ति की जानकारी हमारे पास नहीं है तो धर्म, जाति और जनजातियों जैसे उप-जनसंख्या वर्ग की आय और संपत्ति की जानकारी भी हमारे पास नहीं है. इसका अर्थ यह है कि कई दशकों से आरक्षण से संबंधित जिस सामाजिक नीति और संघर्ष की बात हम करते रहे हैं उसकी जानकारी का कोई वास्तविक आधार हमारे पास नहीं है. अच्छे से अच्छे साक्ष्य भी दोषपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके पास उच्च वर्ग की जानकारी नहीं है और अगर ये दोषपूर्ण सूचनाएँ भी यही दर्शाती हैं कि “अगड़े” और “पिछड़े” के बीच अंतराल बहुत अधिक है और इसमें वृद्धि भी हो रही है. इनमें जैन (और उनसे कुछ नीचे सिख और ईसाई) और “अगड़ी” जाति के हिंदू पिछले तीन दशकों से आर्थिक विकास का सबसे अधिक लाभ उठाते रहे हैं.

इसका स्पष्टीकरण खोजना होगा. ऐसा क्यों है कि एक देश जो खुले आम अपनी नीतियों और राजनीति में आर्थिक और सामाजिक असमानता के लिए बहुत चिंतित दिखाई देता है, वह देश यह जानने के लिए भी किसी तरह की कोशिश करने के लिए तैयार नहीं है कि हमारे देश में कितनी असमानता है और इसे कम करने के लिए चलाई गई प्रगतिशील पुनर्वितरण की नीतियाँ कितनी कारगर रही हैं?  अर्थात् आरक्षण और अन्य सामाजिक नीतियाँ अपने उद्देश्य की प्राप्ति में कितनी सफल रही हैं? क्या आर्थिक विकास के लाभ समाज के सभी वर्गों तक न्यूनाधिक रूप में पहुँच रहे हैं? क्या उदारीकरण के बाद अर्थव्यवस्था में आई वृद्धि “समावेशी” रही है? और अगर हम इन प्रश्नों के उत्तर नहीं जानते हैं तो इससे भी बड़ा सवाल पैदा होता हैः हम क्यों नहीं इनके उत्तर जानते? हम क्यों अनजान बने रहते हैं?  हम क्यों अज्ञान की स्थिति में रहते हैं ? इस अज्ञान का क्या मतलब है, इसका क्या मकसद है ? हम किसके एजेंडे पर चल रहे हैं ? क्या कोई गहरी साज़िश चल रही है या फिर सूचनाओं या राजनीति की प्रकृति ही ऐसी है जिसके कारण इतनी महत्वपूर्ण राजनैतिक जानकारी के प्रति सब लोग किंकर्तव्य-विमूढ़ बने हुए हैं?

मैं अपनी आगामी पुस्तक (The Truth About Us: Information and Society from Manu to Modi) में इन तमाम सवालों को उठाऊँगा और इन पर चिंतन-मनन करने के लिए कुछ सुझाव भी रखूँगा. इस बात की भी संभावना है कि असमानता की सूचना की प्रकृति का संबंध इसके प्रति अज्ञान से भी जुड़ा हो. यदि यह सूचना आज उपलब्ध हो तो भी इसका उपयोग करना बहुत जटिल है. असमानता संबंधी सही जानकारी – सही मानदंड के आधार पर तो सरल है, लेकिन जो विशेषज्ञ नहीं हैं, उनके लिए यह जानकारी अनुपलब्ध ही है. साथ ही साथ असमानता की सूचना उपयोग करने योग्य न होने के कारण इसमें दिलचस्पी रखने वाला हर पक्ष जो भी दावा करना चाहे, कर सकता है. तथ्यों के अभाव के कारण उन्हें और भी सुविधा हो जाती है, क्योंकि तथ्यों का अभाव एक ऐसा मुद्दा है जिसके कारण वे अपने हर तरह के मकसद में कामयाब हो सकते हैं. असमानता की जानकारी न होने से सभी के लिए राजनैतिक सुख ही सुख है.

संजय चक्रवर्ती फ़िलेडेल्फ़िया स्थित टैम्पल विवि में भूगोल और शहरी विकास के प्रोफ़ेसर हैं और कैसी में अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर है.उनकी लिखी पुस्तकें हैं : असमानता (Fragments of Inequality), ज़मीन (The Price of Land), औद्योगीकरण (Made in India), और डायसपोरा (The Other One Percent).

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919