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भारत में कॉपीराइट संबंधी सुधार और प्रोत्साहन-ढाँचे का स्वरूप

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02/12/2013
अनंत पद्मनाभन

कॉपीराइट संरक्षण को प्रोत्साहन तभी मिल सकता है जब इस संरक्षण के लिए कोई विशेष उपयोगितावादी औचित्य हमारे पास हो. विशिष्ट अधिकारों के साथ-साथ सार्वजनिक हित के अपवाद सहित एकाधिकार वाले इसके व्यापक ढाँचे में भारत में बौद्धिक संपदा का कानून बनाने में उपयोगितावादी की यदि इकहरी नहीं तो नियामक भूमिका तो है ही. वस्तुतः यदि कॉपीराइट रचनाकारों को मात्र सम्मानित करने और उनकी कृतियों को सम्मान दिलाने के लिए न भी हो तो भी शासन की ओर से उन्हें पुरस्कार और पारितोषिक तो दिये ही जा सकते हैं. अगर शासन चाहता है कि वे अधिक से अधिक रचनाएँ करें तो उन्हें अधिकाधिक आर्थिक प्रोत्साहन दिये जाने चाहिए. यदि इस मुद्दे की अनदेखी की जाती है तो नीति-निर्माण के समय गलत किस्म के सवाल भी उठाये जा सकते हैं. भारत का हाल ही का कॉपीराइट संबंधी सुधार इसका एक उदाहरण है.

कानून में सुधार की शुरूआत संगीतकारों, गीतकारों और पटकथा लेखकों ने की थी, ताकि उन्हें पारिश्रमिक में बराबर की हिस्सेदारी मिले. उन्होंने उद्योग में उन प्रचलित परंपराओं के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी. प्रचलित परंपराओं के अनुसार रचनाकार एकमुश्त रकम लेकर अपना कॉपीराइट पूरी तरह से हस्तांतरित कर देते थे. एक बार ‘करार’ हो जाने के बाद उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता था और सारा राजस्व नये मालिक अर्थात् प्रोड्यूसर या साउंड रिकॉर्डिंग कंपनी के खाते में चला जाता है. संसद ने उनकी तकलीफ़ के मर्म को समझा और सर्वसम्मति से पूरे हस्तांतरण को उस हद तक अवैध घोषित कर दिया जिस हद तक कि सिनेमेटोग्राफ़ फ़िल्म के एक भाग के रूप में समाहित कार्य के किसी भी प्रकार के उपयोग के लिए पारिश्रमिक के समान शेयर को प्राप्त करने का संगीतकार या गीतकार का अधिकार बनता हो. एक छोटा-सा अपवाद उन फ़िल्म प्रोड्यूसरों के लिए कर दिया गया जो थियेटरों में अपनी फ़िल्मों के वितरण के लिए सारा राजस्व बचाकर रख लेते थे. इन उपायों से यह गंभीर सवाल सामने आता है कि संसद ने “बंधक मज़दूर” और “शोषण” की कहानियों में बहकर मूलभूत सवाल की अनदेखी कैसे कर दीः संगीत देने और फ़िल्म बनाने के लिए सिर्फ़ आज के लिए नहीं बल्कि अगले दस साल के लिए अधिकतम प्रोत्साहन का कौन-सा ढाँचा है? ऑनलाइन पायरेसी, वास्तविक रूप में घटती बिक्री और नयी टैक्नोलॉजी और राजस्व के स्रोतों के आगमन के कारण मनोरंजन उद्योग में बाधक बनने वाले बदलावों के मद्देनज़र आने वाले समय को सामने रखकर उसकी जाँच-परख करना नितांत ज़रूरी है.   

शुरुआत करने वालों के लिए थियेटर के आधार पर किये जाने वाले वितरण से प्राप्त होने वाले राजस्व का  यह अपवाद क्या निर्माताओं को फ़िल्म निर्माण में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता रहेगा? इसका उत्तर “हाँ” और “नहीं” दोनों में हो सकता है और यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यह सवाल किसने किया है और किस स्थिति में किया है. आज के मल्टीप्लैक्स के ज़माने में और उभरते मध्य वर्ग के मद्देनज़र, जो सप्ताहांत पर खर्चा करने के लिए भी तैयार रहते हैं, ऐसे बड़े-बड़े निर्माता, जो बड़े से बड़े स्क्रीन वाले थियेटरों को रोक कर रख सकते हैं,आसानी से अपने निवेश की रकम निकाल सकते हैं और 100 से 200 करोड़ रुपयों तक के हिट भी दे सकते हैं और पूरा का पूरा मुनाफ़ा अपने पास रख सकते हैं.  लेकिन उस छोटे निर्माता का क्या होगा, जो तीन गाने वाली छोटे बज़ट की अपनी फ़िल्म के निर्माण के लिए अपना घर तक गिरवी रख देता है और बड़े स्तर पर अपनी फ़िल्म को रिलीज़ करने की उसकी हिम्मत नहीं होती. उसे कुछ लाभ तभी हो सकता है जब उसकी फ़िल्म टेलीविज़न पर या दूसरे बाज़ारों में रिलीज़ होती है. लेकिन अगर उसे अपने लाभ में से कुछ हिस्सा उस फ़िल्म के संगीतकार, गीतकार और पटकथा लेखकों को भी बराबर-बराबर बाँटना हो तो थियेटरों से प्राप्त राजस्व में से उसके लिए कुछ खास नहीं बचेगा.

और जैसे-जैसे इंटरनैट की रफ़्तार बढ़ेगी और ब्रॉडबैंड की पहुँच (इस समय केवल एक प्रतिशत आबादी तक ब्रॉडबैंड की पहुँच है) अधिकाधिक आबादी तक पहुँचेगी, अगले दस साल में तो सारे उद्योग का ढाँचा ही लगभग पूरी तरह बदल जाएगा. ऐसे समय में पायरेसी के कारण थियेटर का बाज़ार तो नष्ट हो ही जाएगा, उसके साथ ही साउंड रिकॉर्डिंग उद्योग में उसकी वास्तविक बिक्री भी खत्म हो जाएगी और पैसा अगर कहीं बनाया जा सकेगा तो ऑनलाइन रैंटल और नैटफ़्लिक्स, हुलु और यूट्यूब के ज़रिये ही कमाया जा सकेगा.    यद्यपि फ़िल्म निर्माता के लिए सही प्रोत्साहन का ढाँचा तो यही होगा कि वह फ़िल्म निर्माण में निवेश करे, लेकिन अब वह फ़िल्म निर्माण में निवेश करने के बजाय अन्य स्रोतों से कमाये गये राजस्व को बनाये रखने पर ज़ोर देगा. इसी प्रकार सूचना व प्रसारण मंत्रालय द्वारा विस्तार का तीसरा चरण शुरू किये जाने पर रेडियो उद्योग का उद्देश्य हो जाएगा कि वह 18 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर पर आगे बढ़े. अगले पाँच वर्षों में शायद संगीत का अधिकतर राजस्व इसी चैनल से आएगा. दुर्भाग्यवश, हमारे सांसद इस तरह की खोजबीन की कोशिश भी नहीं करते, जैसा कि स्थायी समिति की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है. इसके बजाय वे थियेटर से भिन्न किसी अन्य माध्यम में अधिकारों का उपयोग करने के लिए किसी भी प्रकार के ठेके पर पूरी तरह से रोक लगाना चाहते हैं. भविष्य के लिए कानून बनाने का यह बेहूदा तरीका है और इसमें निवेशक के लिए भविष्य में किसी मौके पर अगर वह किसी विशेष स्रोत से आने वाले राजस्व को रोकना चाहे और उसे किसी और से साझा करना चाहे तो ऐसा कुछ भी करने की उसे छूट नहीं रहेगी.

इसकी काउंटर प्रतिक्रिया यही हो सकती थी कि संसद को कभी भी निर्माताओं को प्रोत्साहित करने की चिंता नहीं रही और उनका ध्यान केवल संगीत निर्देशकों और गीतकारों द्वारा सहे गये ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करना था. इस रास्ते पर चलना खतरनाक हो सकता है,क्योंकि फ़िल्म बनाने के लिए निर्माताओं के लिए प्रोत्साहन का अगर कोई ढाँचा नहीं है तो संगीत निर्देशकों और गीतकारों के लिए भी अपनी सृजनात्मकता को प्रदर्शित करने के बहुत कम अवसर रह जाएँगे. इसके कारण तमाम नये संगीत निर्देशकों और गीतकारों पर बुरा असर पड़ेगा, क्योंकि छोटे फ़िल्म-निर्माता जो उनकी सेवाओं का उपयोग करते थे, अब शायद इस डर से कि उन्हें रॉयल्टी में बराबर का हिस्सा देना पड़ेगा, फ़िल्मी संगीत देना भी बंद कर सकते हैं. या फिर इससे भी बुरा यह हो सकता है कि निर्माता उन्हें छोटी-मोटी एकमुश्त राशि देना भी बंद कर दें जो उन्हें अन्यथा तो मिल ही जाती थी और वे अपने तात्कालिक वित्तीय संकट से उबर जाते थे.    इसकी बेहतर काउंटर प्रतिक्रिया यह हो सकती थी कि अगर संगीत के निर्माण और वितरण की घटती लागत के कारण नया प्रोत्साहन ढाँचा अधिक कारगर होता है तो नया संगीत फ़िल्मों में सिंक्रनाइज़ेशन को ध्यान में रखते हुए रचा जाएगा. ठीक उसी तरह जैसे चेतन भगत और अमीष त्रिपाठी ने अपने साहित्य में दृश्यांकन किया है. साथ ही यह भी वास्तविकता से बहुत दूर की बात है. वस्तुतः संगीत के किसी भी अन्य प्रकार की तरह भारतीय “फ़िल्मी संगीत” का विकास भी एक विशेष परिवेश में हुआ है, क्योंकि भारतीय दर्शक संगीत के साथ नृत्य भी देखना चाहता है और उसे कथानक में किसी न किसी तरह गूँथ दिया जाता है और फ़िल्मी अभिनेता उसके आधार पर ही अपना अभिनय करते हैं, जबकि हॉलिवुड की रोमांटिक कॉमेडी फ़िल्मों के लोकप्रिय गीतों को अलग तरीके से सिंक्रनाइज़ किया जाता है. इन प्रतिक्रियाओं के गुण-दोषों की परवाह किये बिना अभी-भी इस बात की आलोचना हो रही है कि यह सुधार बिना यह जाने किया गया है कि इससे किसको प्रोत्साहन मिलेगा, किस प्रकार की रचनाओं को बढ़ावा मिलेगा, किस प्रकार के बिजनेस मॉडलों को समर्थन मिलेगा और इनका कैसे उपयोग किया जाएगा और उसे कैसे बढ़ावा मिलेगा. आखिरी सवाल खास तौर पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे राजस्व का बँटवारा तीन या चार भागों में भी हो सकता है और इससे कॉपीराइट की विषयवस्तु का स्पैक्ट्रम के चारों ओर उपयोग करने के लिए अपेक्षित दरों में वृद्धि भी हो सकती है, जिसके कारण इसका उपयोग प्रतिबंधित रूप में महँगा हो जाएगा और पहले से ही फलता-फूलता समानांतर पायरेसी का धंधा और भी फलने-फूलने लगेगा.   

संसद ने बिना किसी सरोकार के कॉपीराइट की गयी सामग्री की सुलभता के कारण इस पर तुरंत कार्रवाई कर दी. यह बात इसीसे सिद्ध हो जाती है कि इसके लेन-देन की लागत पर बिना किसी बहस के ही इसे पारित कर दिया गया. इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि संशोधित अधिनियम इस बात पर बहुत-ही अस्पष्ट रह गया कि इससे पारिश्रमिक के हिस्से की कोई गारंटी मिलती है या नहीं और इससे अधिकार कई भागों में बँट भी जाते हैं. अगर पहले जैसी स्थिति होती तो एक ही लाइसेंस पर्याप्त होता जबकि बाद की व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक अधिकार धारक के लिए अलग-अलग लाइसेंस की ज़रूरत होगी. इसके विवाद का आधार शब्दिक व्याख्या के कारण है, और आगे आने वाले समय में अदालतों के अनगिनत घंटे इस मुद्दे को सुलझाने में ही लग जाएँगे. यह कहने की  आवश्यकता नहीं है कि टेलीफ़ोन ऑपरेटर जैसे उपयोगकर्ता जो कॉलर ट्यून और रिंग टोन के एक भाग के रूप में गानों का उपयोग करना चाहते हैं, वे अभी-भी नहीं जानते कि उन्हें संगीत-निर्देशकों और गीतकारों के साथ अलग से लाइसेंस करार करने का और अधिक जटिल मार्ग चुनना होगा. 

खास तौर पर आर्थिक विनियमन के क्षेत्र में कानून बनाते समय असंग्धिता और दूरदर्शिता की बेहद ज़रूरत होती है. अतीत में की गयी गलतियों से भविष्य के लिए समाधान नहीं ढूँढे जा सकते. भारत में हाल ही में किये गये कॉपीराइट संबंधी सुधार इस बात के लिए केस स्टडी बन सकते हैं कि अगर सही सवाल न किये जाएँ तो उसका हश्र क्या हो सकता है. यह अफ़सोस की बात है कि कानून-निर्माताओं को अतीत के गरीब गीतकारों की तो चिंता है, लेकिन भविष्य के संगीत की कोई चिंता नहीं है.

 

अनंत पद्मनाभन कैसी के अनुसंधान सहायक हैं.

Ananth Padmanabhan is a CASI Research Assistant.

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा),रेलमंत्रालय, भारतसरकार <malhotravk@hotmail.com>