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परमाणु ऊर्जा के विकास के लिए संस्थागत अपेक्षाएँ

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01/02/2016
अदिति वर्मा

COP 21 में राष्ट्रीय दृष्टि से भारत के अपने निर्धारित योगदान (INDC) में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा प्रौद्योगिकी के रूप में परमाणु को भी शामिल किया गया था. इस योगदान में सन् 2032 तक 63 GWe परमाणु-आधारित क्षमता के निर्माण का संकल्प किया गया था. इसे पूरा करने के लिए भारत के पास 21 रिऐक्टर हैं, जिनसे स्थापित क्षमता की केवल 5 GWe से कम ही ऊर्जा का निर्माण हो सकता है (बिजली के सभी स्रोतों से कुल मौजूदा स्थापित क्षमता 281 GWe है).  अमरीका के पास विश्व के रिऐक्टरों का सबसे विशाल बेड़ा है, जिसमें लगभग ~100 GWe वाले या 99 बड़े रिऐक्टर हैं. यदि यह लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया तो 63 GWe वाला बेड़ा विश्व के रिऐक्टरों का दूसरा या तीसरा सबसे विशाल बेड़ा होगा (लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि इस दौरान चीनी कार्यक्रम कितनी तेज़ी से आगे बढ़ता है). भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) के सन् 2030 के बाद के कुछ प्रक्षेपित लक्ष्य तो इससे भी अधिक महत्वाकांक्षी हैं, जिनमें यह परिकल्पना की गई है कि इस शताब्दी के मध्य तक या उसके भी बाद सभी प्रकार की बिजली के 25-50 प्रतिशत भाग की आपूर्ति परमाणु ऊर्जा से ही की जाएगी. इससे दो महत्वपूर्ण सवाल पैदा होते हैं: क्या परमाणु ऊर्जा से सम्बद्ध संस्थाओं में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के इतने बड़े विस्तार को सँभाल पाने की क्षमता है और अगर ऐसा नहीं है तो परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के ऐसे विस्तार के लिए कौन-से वे परिवर्तन हैं, जो  अपेक्षित हैं और संभावित भी हैं?

परमाणु को मुख्यधारा बनाएँ

सन् 1948 में जब इसकी शीर्ष संस्था परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) की स्थापना हुई थी और उसके कुछ समय के बाद ही सन् 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग  ( DAE)  की स्थापना की गई थी, उसी समय विकसित इसके संगठनात्मक और संस्थागत ढाँचे के साथ ही भारतीय परमाणु कार्यक्रम का निर्धारण किया गया था. परमाणु ऊर्जा आयोग के पहले और सबसे अधिक समय तक सेवारत अध्यक्ष होमी भाभा ने अपने परम मित्र पं. नेहरू को इस बात के लिए मना लिया था कि परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का मुख्यालय (दिल्ली के बजाय) मुंबई में ही रखा जाए. मुंबई में मुख्यालय होने के कारण परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) ऐसी कंपनियों के करीब रह सकता था, जो इसके भावी अनुसंधान और पावर रिऐक्टरों के लिए आवश्यक उपकरणों का निर्माण कर सकती थीं. इसी स्थान के आसपास एक ऐसे अनुसंधान केंद्र का निर्माण हुआ, जिसके अंतर्गत अनेक प्रयोगशालाएँ बनीं और प्रोटोटाइप रिऐक्टर स्थापित किये गये और अंततः परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) की अधीनस्थ संस्थाओं का मुख्यालय भी बना. भाभा ने यह अनुरोध भी किया था कि परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) को भर्ती, सामग्री की खरीद और निर्माण के मामलों में भी स्वायत्तता प्रदान की जाए. अब यह माना जाता है कि वास्तव में यही व्यापक स्वायत्तता, भारतीय परमाणु और अंतरिक्ष कार्यक्रम के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई. नवोन्मेषकारी होने के कारण दोनों ही कार्यक्रमों को व्यापक स्वीकृति मिली. पहले इस प्रौद्योगिकी को विदेशों से मँगवाकर स्थानीय बनाया गया और फिर बाद में इन्हें विभिन्न रूपों में देशी प्रौद्योगिकी के रूप में विकसित किया गया.

यद्यपि आरंभ से ही इस परमाणु कार्यक्रम से जुड़े अग्रणी लोगों को जो व्यापक विवेकाधिकार मिला हुआ था, वह इसकी स्थापना के समय तो ठीक था, जब इसके सामने विशाल प्रौद्योगिकी को लेकर अनिश्चितता के बादल मँडरा रहे थे, लेकिन ऐसे समय में आकर जब इस कार्यक्रम ने महत्वपूर्ण विकास के दौर में प्रवेश कर लिया है, यह विवेकाधिकार, लगता है कुछ मुश्किलें भी पैदा करने लगा है. परमाणु रिऐक्टरों का नियोजन और निर्माण, ऊर्जा संबंधी नियोजन की व्यापक पहल का ही एक भाग होना चाहिए, न कि परमाणु ऊर्जा विभाग के अंतर्गत एक स्वायत्त संगठन-सा ही होना चाहिए (सन् 2032 तक परमाणु ऊर्जा विभाग का प्रक्षेपित लक्ष्य 63GWe है).

जब वैश्विक परमाणु ऊर्जा (लगभग 40 देश पहली बार परमाणु संयंत्र का निर्माण और संचालन करने पर विचार कर रहे हैं) के लिए उत्साह का वातावरण बन रहा है तो ऐसी स्थिति में लागत व संरक्षा को लेकर चिंतित योजनाकारों और नीति-निर्माताओं को परमाणु ऊर्जा के उपयोग के विभिन्न आयामों के प्रति सावधानी बरतते हुए ही भावी योजना का निर्माण करना चाहिए: परमाणु ऊर्जा का ऊर्जा के अन्य स्रोतों के साथ कैसे समायोजन हो पाएगा? परमाणु क्षमता की कितनी मात्रा को और कब तक ऑनलाइन किया जा सकेगा ? इसकी कितनी लागत होनी चाहिए? परमाणु रिऐक्टर कितना सुरक्षित होना चाहिए?   

प्रधानमंत्री मोदी ने कोयले, बिजली और नवीकरणीय ऊर्जा को एक ही मंत्रालय (पीयूष गोयल) के अंतर्गत समेकित करके रख दिया है, जबकि परमाणु (और साथ ही अंतरिक्ष) को अलग मंत्रालय      (जितेंद्र सिंह) के अंतर्गत रखा गया है. सुरक्षा की दृष्टि से परमाणु को ऊर्जा से संबंधित अन्य मंत्रालयों से अलग रखना तो ठीक है, लेकिन परमाणु को अलग मंत्रालय के अंतर्गत रखने से ऊर्जा के समन्वित नियोजन में बाधा पड़ेगी. परमाणु कार्यक्रम के बिजली और रक्षा से संबद्ध आयामों को अलग रखना कुछ जटिल तो है, लेकिन असंभव नहीं है. एक विकल्प तो यही हो सकता है कि असैन्य और रक्षा प्रयोजनों (भारत-अमरीकी समझौते के एक भाग के रूप में भारत द्वारा प्रस्तावित पृथक्करण योजना इस दिशा में एक कदम हो सकता है) से जुड़े रिऐक्टरों को अलग-अलग रखा जाए.

स्वतंत्र रैगुलेटर की स्थापना की जाए

स्वंतत्र रैगुलेटर का होना किसी भी आकार के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के लिए दूसरी और महत्वपूर्ण आवश्यकता है. यही शायद सबसे महत्वपूर्ण सीख भी है, जो हमने तीन बड़ी परमाणु दुर्घटनाओं (थ्री माइल आईलैंड, चेर्नोबिल और फुकुशिमा) से ली है. यद्यपि भारतीय परमाणु सुरक्षा रैगुलेटर, परमाणु ऊर्जा रैगुलेटर बोर्ड  (AERB) “वास्तव में” स्वतंत्र तो हैं, लेकिन फिर भी स्वतंत्र होते हुए भी “विधिसंगत” नहीं हैं. इनसे स्वतंत्रता दिलाने वाला विधेयक पिछले चार वर्षों से अभी भी विचाराधीन चल रहा है. परमाणु ऊर्जा रैगुलेटर बोर्ड (AERB) में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC)  और  NPCIL के उन सेवानिवृत्त अधिकारियों को स्थान दिया गया है, जिन्हें परमाणु संयंत्रों का डिज़ाइन करने, उनका संचालन करने और उन्हें विनियमित करने का व्यापक अनुभव है. उनके पुराने साथी भी उन्हें काफ़ी मानते रहे हैं, लेकिन कार्यक्रम के आकार में भारी वृद्धि कदाचित् रैगुलेटर पर भारी पड़ सकती थी या फिर शीघ्रता के कारण विस्तार की योजना पर बुरा असर पड़ सकता था. इन दोनों ही स्थितियों में अनौपचारिक नैटवर्क कमज़ोर पड़ सकता था, जो आज की स्थिति में विनियमन के लिए अत्यंत आवश्यक था.

रैगुलेटर में किसी भी प्रकार के विस्तार के लिए सावधानी से उसे योजनाबद्ध करना होगा. दुनिया-भर में जितने भी परमाणु रैगुलेटर हैं, उनका आकार बहुत बढ़ गया है और वे अपने ढंग से अपना काम करने के आदी भी हो गए हैं और साथ ही नौकरशाही के बँधे-बँधाये कायदे-कानून में फँसकर रह गए हैं. शायद इसका सबसे अच्छा और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है, अमरीकी परमाणु सुरक्षा रैगुलेटर  ,जिसके नये संयंत्र के डिज़ाइन की समीक्षा में एक दशक से अधिक समय बीत गया है. जहाँ एक ओर स्वतंत्र रैगुलेटर की आवश्यकता है, वहीं एक ऐसा संगठन बनाने के लिए बहुत सावधानी रखनी होगी, जो संपूर्ण होने के साथ–साथ सक्रिय भी हो.

परमाणु ऊर्जा विभागसे अलग विशेषज्ञता केंद्रों की स्थापना की जाए.

बहुत ही महत्वपूर्ण और विशाल परमाणु कार्यक्रम के लिए तीसरी आवश्यकता यह है कि परमाणु ऊर्जा विभाग से अलग स्वतंत्र विशेषज्ञता केंद्रों का विकास किया जाए. अगर परमाणु कार्यक्रम में विस्तार होता है तो परमाणु रिऐक्टरों के अनुसंधान, डिज़ाइन, संचालन और विनियमन के लिए (परमाणु इंजीनियरी के अलावा) इंजीनियरी से संबंधित विशेषज्ञता और परमाणु इंजीनियरों की भी बहुत ही भारी मात्रा में आवश्यकता होगी. 

इस समय तो परमाणु क्षेत्र की विशेषज्ञता केवल परमाणु ऊर्जा विभाग और उसके अंतर्गत आने वाले संगठनों (भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, इंदिरा गाँधी परमाणु अनुसंधान केंद्र, भारतीय परमाणु बिजली निगम और भारतीय नाभिकीय विद्युत् निगम) तक ही सीमित है और परमाणु ऊर्जा विभाग से बाहर  बहुत कम ऐसे स्वतंत्र विशेषज्ञ और विशेषज्ञता केंद्र हैं, जो इसकी इंजीनियरी और नीति संबंधी निर्णयों का स्वतंत्र रूप से आकलन और मूल्यांकन करने में सक्षम हों. वस्तुतः परमाणु ऊर्जा की योजनाओं का स्वतंत्र रूप में मूल्यांकन करने के लिए परमाणु ऊर्जा विभाग के बाहर ऐसी विशेषज्ञता होने से ही परमाणु ऊर्जा के विस्तार के प्रक्षेपित लक्ष्य के लिए विश्वसनीयता और औचित्य सिद्ध हो सकेगा.

ऐतिहासिक दृष्टि से परमाणु ऊर्जा विभाग  ने अपने वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को अपने प्रशिक्षण स्कूलों और अपने ही विश्वविद्यालय (होमी भाभा राष्ट्रीय संस्थान) में प्रशिक्षित किया था. इसप्रकार भारतीय परमाणु इंजीनियरों की हर नई पीढ़ी परमाणु ऊर्जा विभाग की संस्कृति और परंपराओं से शुरुआत से ही ओत-प्रोत रही है. जहाँ एक ओर इसके कारण इसमें असाधारण रूप में संस्थागत स्थिरता आ गई है, वहीं एक प्रकार का प्रौद्योगिकीय अवरोध भी उत्पन्न हो गया है. आज परमाणु ऊर्जा से संबंधित भारत की प्रौद्योगिकीय रणनीति का तीन-स्तरीय कार्यक्रम है, जिसका अंतिम लक्ष्य आज भी घरेलू थोरियम रिज़र्व का उपयोग करना ही है, जो पचास के दशक में तब निर्धारित किया गया था, जब भाभा ने पहले-पहल इसकी परिकल्पना की थी. विकास के मार्ग पर चलने के लिए और कुछ मामलों में दुनिया-भर में विकसित होने वाली प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए वैकल्पिक प्रौद्योगिकियों पर विचार करना काफ़ी मूल्यवान् सिद्ध हो सकता है. नये विशेषज्ञों को प्रमुख रूप में आंतरिक प्रशिक्षण प्रदान करने से कुछ समस्याएँ भी पैदा हो सकती हैं, क्योंकि विभिन्न प्रकार की आंतरिक पहलों के कारण नये इंजीनियरों को सीमित परमाणु कार्यक्रम के लिए ही प्रशिक्षित किया जा सका है. अगर उन्हें बहुत बड़े आकार के रिऐक्टर बेड़े की सँभाल करनी पड़ी तो उसके लिए कर्मचारियों को तैनात करना मुश्किल हो जाएगा.  

परमाणु ऊर्जा विभाग के बाहर तीन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs ) ऐसे हैं, जहाँ परमाणु इंजीनियरी के लिए स्नातक कार्यक्रम चलते हैं. समय के साथ इन विभागों को और अधिक विकसित करने के लिए आवश्यकता है कि परमाणु ऊर्जा विभाग और इन विभागों के बीच संबंधों को और मज़बूत किया जाए और यह तभी संभव हो पाएगा जब बड़ी संख्या में इनके स्नातकों को भर्ती करके उन्हें और बढ़ावा दिया जाए, उन्हें अपने अनुसंधान के लिए आवश्यक सुविधाएँ प्रदान की जाएँ और उन्हें परमाणु ऊर्जा विभाग की सुविधाओं का लाभ उठाने की अनुमति दी जाए. निजी विश्वविद्यालयों में धीरे-धीरे परमाणु इंजीनियरी के पाठ्यक्रम चलाने की शुरुआत भी की जा रही है और यह उत्साहवर्धक कदम है, लेकिन परमाणु ऊर्जा,विज्ञान और इंजीनियरी ऐसे विषय हैं जिनसे उठने वाले सवाल नीतिशास्त्र और नीति से परस्पर गुँथे हुए हैं. इस प्रकार भारत में परमाणु ऊर्जा के विस्तार के लिए न केवल परमाणु इंजीनियरों की आवश्यकता होगी, बल्कि अलग प्रकार के ऐसे परमाणु इंजीनियरों की आवश्यकता होगी, जिन्हें व्यापक प्रशिक्षण मिला हो और जो विज्ञान, प्रणाली और समाज सबके प्रति समान रूप से सचेत हों. 

भारत का ऊर्जा कार्यक्रम विस्तार के संक्रमण काल से गुज़र रहा है. लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि जिन संस्थाओं ने इस कार्यक्रम को यहाँ तक पहुँचाया है, उन्हें इस पर पुनर्विचार करके निकट भविष्य में इस तरह से पुनर्निर्मित करना चाहिए ताकि परमाणु ऊर्जा के उपयोग को और अधिक बढा़या जा सके.

अदिति वर्मा मैसाशुएट्स प्रौद्योगिकी संस्थान के परमाणु विज्ञान व इंजीनियरी विभाग में डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं. उनके डॉक्टरेट के शोध-कार्य में नवोन्मेष और सुरक्षा-नीति के मद्देनज़र रिऐक्टर के डिज़ाइन और उसके निहितार्थों के अध्ययन के लिए समाजविज्ञान और इतिहास के साथ-साथ इंजीनियरी भी शामिल है. उनका संपर्क-सूत्र है: aditive@mit.edu.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919