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सुधार, प्रतिनिधित्व और प्रतिरोधः भारत में संपत्ति के अधिकारों के प्रवर्तन की राजनीति

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28/01/2019
रशेल ब्रूले

महिलाओं में राजनीतिक समावेशन को बढ़ावा देने के लिए विश्व भर में सबसे अधिक क्रांतिकारी कदम है, सरकारी सेवाओं में महिलाओं के लिए कोटा निर्धारित करना. विशेषकर आर्थिक क्षेत्रों में कोटे का साक्ष्य और प्रतियोगिता दोनों का ही स्रोत भारत में मिलता है. भूमि के उत्तरदायित्व के अधिकारों से जुड़े महत्वपूर्ण क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तीकरण का लाभ अंततः उन्हें कितना मिला?  

पिछले दो दशकों में विश्व भर में विधायिका और राजनीतिक दलों में महिला सांसदों का औसत कोटा दुगुना हो गया है, लेकिन यह कोटा भी विवादास्पद रहा है. वास्तव में हमें ऐसे चुनावी कोटे की बहुत कम जानकारी है, जिससे यह पता चलता हो कि चुनाव की प्रक्रिया से कोटे के आधार पर चुने जाने वाले उम्मीदवार महिलाओं का कितना प्रतिनिधित्व करते हैं और समग्र रूप में वे समाज का कितना भला करते हैं.  

अगर हम समकालीन भारत पर अपना ध्यान केंद्रित रखें तो मेरे शोध के अनुसार हमें यह पता चलता है कि आर्थिक सुधारों को समान बनाने की लैंगिक प्रक्रिया के प्रवर्तन को कोटा कैसे प्रभावित करता है. संक्षेप में, मैंने यह पाया है कि लैंगिक कोटे से आर्थिक और सामाजिक समानता को स्थायी बनाया जा सकता है, बशर्ते कि ऐसे अधिकारों के प्रवर्तन के लिए महिलाओं को संसाधन इस तरह से दिये जाएँ ताकि सभी दल उसका लाभ उठा सकें. 

मुख्यतः मैंने अपना ध्यान उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति से जुड़े महिलाओं के अधिकार पर केंद्रित किया है. भूमि का उत्तराधिकार विश्व के अधिकांश देशों में आर्थिक स्थिरता का सबसे मज़बूत गारंटीशुदा उत्तराधिकार माना जाता है. साक्ष्यों से पता चलता है कि जहाँ महिलाओं के पास भूमि के अधिकार होते हैं, परिवार पर उनका दबदबा बना रहता है और वे घरेलू हिंसा की बहुत कम शिकार होती हैं, उनके बच्चे अधिक स्वस्थ रहते हैं और कृषि भूमि पर बेहतर खेती होती है और सारे परिवार के लिए उपज भी अधिक होती है. दूसरे शब्दों में, हमें लगता है जहाँ महिलाओं को उत्तराधिकार में भूमि मिलती है, वहाँ सभी लाभान्वित होते हैं. फिर भी संपत्ति की मिल्कियत को पाने और सुरक्षित रखने में महिलाओं को खास तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है. भारत में जहाँ आज तीन चौथाई महिलाएँ अपनी आमदनी खेती से अर्जित करती हैं, वहीं भूमि पर उनकी मिल्कियत 13 प्रतिशत से भी कम है.

मैंने राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आर्थिक सशक्तीकरण के बीच के संबंधों की व्याख्या के लिए एक सिद्धांत बनाया है और उसका परीक्षण भी किया है. मेरा मानना है कि कोटे से महिलाओं के आर्थिक अधिकारों के प्रवर्तन में सुधार हो सकता है, हालाँकि परंपरागत सामाजिक मान्यताओं का व्यापक ईको सिस्टम सामान्यतः (संभावित) लाभार्थियों पर प्रहार करता रहता है. खास तौर पर संपत्ति के दुर्लभ संसाधनों के लिए होने वाले संघर्ष के कारण हिंसा (शैशव, बालिकाओं के जन्म या वृद्धावस्था से लेकर बालिकाओं की भ्रूणहत्या जैसी परिस्थितियों के कारण अपना ख्याल न रख पाने की वजह से महिलाओं को उनके मूल्यवान् भूमि अधिकारों से वंचित करने के लिए डरा-धमका कर की जाने वाली हिंसा) को बढ़ावा मिलता है, जिसके कारण एक अनुमान के अनुसार 2018 में 63 मिलियन महिलाएँ भारत की आबादी से “गुमशुदा” पाई गईं.

ऐसी युवा महिलाओं के कोटा सबसे अधिक लाभकारी होता है, जो खास तौर पर भूमि और दहेज जैसे विभिन्न मामलों के लिए संसाधनों के वितरण में समझौता करने में सक्षम हों. इसके कारण पुरुषों के बोझ और बाद में संभावित दुष्परिणामों में कमी आ जाती है. असल में मेरा एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यही दर्शाना है कि समावेशन के लिए राजनीतिक शक्ति को प्रभावित करने वाली महिलाओं की क्षमता से उनके सशक्तीकरण को कैसे स्थायी बनाया जा सकता है.

मैंने भारत पर अपना ध्यान इसीलिए केंद्रित किया है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कोटे की स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था होने के कारण स्थानीय शासन (पंचायत) का चेहरा बदलने लगा है. मेरे निष्कर्ष का आधार है, सन् 1993 के 73 वें और 74 वें संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से की गई व्यवस्थाओं के अंतर्गत भारत की पंचायती शासन व्यवस्था में महिलाओं के चुनावी कोटे का बाहर से (स्वतंत्र) आकलन. इन संशोधनों के अंतर्गत ही ग्राम पंचायतों के प्रधान या सरपंच के रूप में महिलाओं के “आरक्षण” सहित त्रि-स्तरीय पंचायत प्रणाली अपनाई गई है. इसके अंतर्गत किसी एक चुनाव में कम से कम एक तिहाई चुनाव क्षेत्रों को केवल महिलाओं के लिए “आरक्षित” कर दिया गया था. हिंदू महिलाओं को उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति के समान अधिकार के लिए लागू किये गए ऐतिहासिक सुधारों के लिए महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर पड़ने वाले प्रभाव को चिह्नित करने के लिए मैंने इन आरक्षणों के अर्ध-यादृच्छिक कार्यान्वयन को आधार बनाया है. इन सुधारों की शुरुआत सन् 1976 में हुई और इसकी परिणति हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में 2005 में किये गए राष्ट्रीय संशोधन के रूप में हुई. इसके फलस्वरूप लगभग 400 मिलियन बेटियों को बेटों के समकक्ष पैतृक संपत्ति उत्तराधिकार के रूप में पाने का अधिकार मिल गया.

अपने विश्लेषण के लिए मैंने राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद (NCAER) द्वारा किये गए 2006 के ग्रामीण आर्थिक भूसांख्यिकीय सर्वेक्षण (REDS) के साथ-साथ मुख्यतः आंध्र प्रदेश जैसे मार्गदर्शी सुधारों वाले राज्य में किये गए व्यापक फ़ील्ड अनुसंधान और अभिलेखीय अध्ययन को आधार बनाया है. अपने आनुभविक विश्लेषण के लिए मैंने भारत के 17 राज्यों के 8,500 परिवारों के भूमि उत्तराधिकार और राजनीतिक भागीदारी से संबंधित व्यक्तिगत स्तर के रिकॉर्डों को आधार बनाया है. इसके लिए मैंने भारत के प्रत्येक राज्य में लागू आरक्षण के व्यापक आँकड़े संकलित किये और यह जानने के लिए कि पंचायतें पैतृक संपत्ति से जुड़े अधिकारों पर किस प्रकार से निर्णय लेती हैं, दो साल तक राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं, स्थानीय राजस्व पदाधिकारियों (VROs), भू-स्वामियों (खास तौर पर महिलाओं), वकीलों, पुलिस अधिकारियों और सक्रिय कार्यकर्ताओं के इंटरव्यू लेता रहा.

मेरे निष्कर्षों के अनुसार पूर्व-उत्तराधिकार सुधारों और आरक्षण के कारण महिलाओं के उत्तराधिकार के मामलों में आवृत्ति और परिमाण – दोनों में ही वृद्धि हुई है. पिता के साथ रहने वाली महिलाओं के संदर्भ में आरक्षण के बाद पिता की मृत्यु होने पर उन्हें उत्तराधिकार में भूमि मिलने में 6 प्रतिशत बिंदुओं के अधिक लाभ की संभावना रहती है. इसके कारण (यादृच्छिक रूप में आरक्षण को लागू करने वाले राज्यों में भूमि का स्वामित्व रखने वाले हिंदू परिवारों के लिए) महिलाओं के उत्तराधिकार की आवृत्ति का प्रतिशत 10.3 से बढ़कर 16.3 हो सकता है. 1.34 बिलियन आबादी वाले भारत में यह बहुत सार्थक है,क्योंकि 92 प्रतिशत आबादी ग्रामीण भारत में रहती है और उनमें से 67 प्रतिशत परिवारों के पास अपनी भूमि है. इसका आशय यह है कि 23.6 मिलियन से अधिक महिलाओं को उत्तराधिकार में भूमि प्राप्त होगी. इसके विपरीत, सुधारों के बाद किये गये आरक्षण के कारण और भी कम महिलाओं को उत्तराधिकार में भूमि प्राप्त होगी. पैतृक भूमि पर समान अधिकार रखने वाली महिलाओं में से उत्तराधिकार में भूमि पाने वाली महिलाओं की संख्या महिला प्रधान या सरपंच-विहीन पंचायतों के समर्थन के बिना केवल आधी रह सकती है.

सुधार के ये अनभिप्रेत परिणाम क्या दर्शाते हैं ? मेरा तर्क है कि महिलाओं की राजनीतिक एजेंसी पहले भंग होती है और फिर उसका पुनर्निर्माण होता है और सरकारी व निजी क्षेत्रों के बीच लिंग विभाजन होता है, जो कि ग्रामीण भारत के अधिकांश हिस्सों में आम बात है. जैसे-जैसे महिलाओं की उपस्थिति राजनीतिक संस्थाओं में बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में सौदेबाजी की उनकी ताकत बढ़ती जाती है. निश्चय ही सरकारी हैसियत के कारण उनके अपने क्षेत्रों में उनकी सुनवाई अधिक होने लगी है और वे अपनी प्रतिक्रियाएँ भी देने लगी हैं. इससे स्पष्ट है कि उनका दायरा बहुत बढ़ गया है. फिर भी बहुत कम ऐसी महिलाएँ हैं जो व्यापक भलाई के कामों में योगदान कर पाती हैं और निजी पैतृक संपत्ति के मामलों में सौदेबाजी के लिए राजनीतिक आवाज़ उठा पाती हैं. मेरे फ़ील्डवर्क के अनुसार विवाह के समय महिलाएँ अपने मायके के परिवार के संसाधनों के वितरण में अधिक से अधिक आवाज़ उठाती हैं. मैंने पाया है कि उत्तराधिकार और दहेज जैसे मामलों में कम उम्र की महिलाओं में सौदेबाजी की क्षमता अधिक होती है, खास तौर पर सुधार वाली उम्र में यह क्षमता (बड़ी उम्र की महिलाओं के मुकाबले बीस साल से कम सुधार वाली उम्र में महिलाओं की सौदेबाजी की क्षमता समान अधिकार के साथ विवाह के मामले में) अधिक होती है. निश्चय ही उन महिलाओं को उत्तराधिकार के समान अधिकार संबंधी सुधार की मार अधिक झेलनी पड़ती है, जो पहले से विवाहित होती हैं और जिन्हें विवाह के समय अपने नाम पर दहेज के रूप में अपने परिवार से रकम भी मिली होती है. ऐसी महिलाओं के लिए उनका प्रतिनिधित्व करने वाली महिला अधिवक्ताओं को उनके मायके के परिवार की ओर से अधिक प्रतिरोध झेलना पड़ता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उन पर ‘दोहरा बोझ’ पड़ सकता है. आरक्षण के साथ-साथ पात्रता के कारण इन महिलाओं के उत्तराधिकार के बिंदु 9-10 प्रतिशत तक कम हो जाते हैं. इसके विपरीत समान लैंगिक आधार पर विवाह के लिए समझौता-वार्ता करते समय सरकारी महिला विभागाध्यक्ष उन्हें भूमि के उत्तराधिकार के 15-19 प्रतिशत अधिक बिंदु दिलवा सकते हैं. समान अधिकार के आधार पर भूमि का उत्तराधिकार मिलते समय महिलाओं की उम्र जितनी कम होती है, उतना ही वह उत्तराधिकार के लिए महिला के रूप में राजनीतिक शक्ति का उपयोग करने में सक्षम हो जाती है. यही महिलाओं के लिए शुद्ध लाभ है, जिसे मैं दहेज के साथ ससुराल वालों को उनके ही नाम पर दी गई भूमि के एक भाग के रूप में देखता हूँ.

इसके अलावा मैं उन तमाम राजनीतिक और सामाजिक चैनलों का भी परीक्षण करता हूँ जिनके कारण आरक्षण का व्यवहार पर भी असर पड़ता है. मैंने पाया है कि निर्वाचित महिला नेता राजनीतिक भागीदारी और महिलाओं की सामाजिक एकजुटता के द्वारा आर्थिक अधिकारों के प्रभावी प्रवर्तन की माँग करके महिलाओं की क्षमता बढ़ाने में लगी रहती हैं. लेकिन प्रतिनिधित्व पर आधारित लैंगिक समानता से जुड़े उत्तराधिकार के अधिकारों की कीमत पुरुषों को चुकानी पड़ती है. इसके कारण दुर्लभ पैतृक संपत्ति और उनके राजनीतिक अधिकारों में कमी आ जाती  है. आरक्षण का सीधा असर पुरुषों पर पड़ता है, बेटियाँ हिंसा की शिकार होती हैं और पिता की अनुमति के बिना होने वाली बेटियों की शादी के मामलों से जुड़े निर्णयों पर इसका बुरा असर पड़ता है.

समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि मात्र आर्थिक सुधारों से समानता नहीं लाई जा सकती. इसके लिए व्यापक स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को विकेंद्रित करना काफ़ी नहीं होगा. इसमें और अधिक स्थानीय नागरिकों का समावेश करना होगा. वास्तविक समानता लाने के लिए व्यापक स्तर पर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समायोजन करना होगा. खास तौर पर यहाँ परंपरागत भूमि के हक के लिए संपत्ति और अन्य संसाधनों पर पुरुषों के विशेषाधिकार के प्रश्न को सीधे सुलझाना होगा. फिर भी यदि हम सबके अधिकारों के “हिस्से” को बढ़ाने के अवसरों में वृद्धि कर सकें तो सामूहिक कल्याणकारी कार्यों में और सुधार ला सकेंगे.

 रशेल ब्रूले संयुक्त अरब अमीरात में स्थित न्यूयॉर्क विवि आबी धाबू के समाज विज्ञान प्रभाग में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफ़ेसर हैं. यह लेख इसी शीर्षक से लिखित आलेख से लिया गया है, जिसे इसी शर्त पर जर्नल ऑफ़ पॉलिटिक्स द्वारा प्रकाशित करने और कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस द्वारा ठेके के आधार पर तैयार की गई संबंधित पुस्तक की पांडुलिपि के प्रकाशन के लिए स्वीकार किया गया है, जिसका शीर्षक है: Women’s Representation and Resistance: Positive and Perverse Consequences of Indian Laws for Gender Equity.  

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919