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अक्षय ऊर्जा और इसके क्षेत्रीय परिणाम

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15/01/2018
रोहित चंद्र

इन दिनों भारत में सहकारी संघवाद ही शासन का मंत्र बना हुआ है. जीएसटी, आधार, विमुद्रीकरण, स्वच्छ भारत और अन्य अनेक योजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र सरकार जिस दृढ़ता से व्यापक तकनीकी समाधान खोजने का प्रयास कर रही है, वह अभूतपूर्व है. भले ही कुछ समय तक ऐसे हस्तक्षेप तकलीफ़देह लगें, लेकिन इनके दूरगामी लाभ अच्छे ही होंगे, इस बात को मानने के लिए भी स्पष्ट कारण मौजूद हैं, लेकिन ऐसे लाभ सभी क्षेत्रों में हमेशा एक जैसे नहीं हो सकते और इन नीतियों के दीर्घकालीन वितरणपरक और स्थानिक परिणामों को अक्सर लोग समझ नहीं पाते. भारत में अक्षय ऊर्जा के लिए जो तेज़ी और तत्परता दिखाई जा रही है, वह स्पष्ट रूप में दिखाई देती है और यही कारण है कि देश के अलग-अलग भागों में इसके परिणाम उल्लेखनीय रूप में अलग-अलग होते हैं.

दो मानचित्रों पर गौर करें: एक है, भारत के कोयला संसाधन ( मुख्यतः पूर्वी और मध्य भारत में केंद्रित) और दूसरा है, भारत के सौर और पवन ऊर्जा के प्रमुख संसाधन (मुख्यतः पश्चिमी और दक्षिण भारत में केंद्रित). ये इलाके कुछ हद तक परस्परव्यापी हैं. इस समय भारत में ग्रिड-स्केल की अक्षय ऊर्जा की  स्थापित क्षमता 60 मेगावाट है. इसमें से 57 मेगावाट ऊर्जा देश के उत्तरी, दक्षिणी और पश्चिमी क्षेत्रों में केंद्रित है. कुल उत्पादित अक्षय ऊर्जा के 3 प्रतिशत से भी कम ऊर्जा का उत्पादन इस समय पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों (संक्षेप में इस क्षेत्र को समग्र रूप में उत्तरी भारत कहा जाता है) में किया जा रहा है और इन क्षेत्रों की यह परिसंपत्ति इनके कम उपयोग के कारण काफ़ी महँगी पड़ती है. पूर्वी भारत में ग्रिड से जुड़ी अक्षय ऊर्जा की क्षमता के उत्पादन को बढ़ाने में बाधक तत्व यहाँ का भूगोल और मौसम ही है. एक कारण तो यही है कि गुजरात और राजस्थान में अक्षय ऊर्जा की परिसंपत्ति वाली निजी कंपनियाँ पूर्वी क्षेत्र की वितरण कंपनियों से यह वचन देने का आग्रह रहती रही हैं कि वे बिजली उन्हीं से खरीदें.

इसलिए अक्षय ऊर्जा के लिए स्थलों का चुनाव करने के तकनीकी कारण बिल्कुल सही हैं, लेकिन जिस तेज़ी से अक्षय ऊर्जा का विस्तार हो रहा है, उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. इस बात की संभावना है कि अगले 15-20 वर्षों में धीरे-धीरे कोयला-आधारित बिजली उत्पादन का स्थान अक्षय ऊर्जा ले लेगी.    फिर भी कोयला बेल्ट वाले राज्यों में अक्षय ऊर्जा के आने से रोज़गार या विनिर्माण के स्तर पर बहुत कम लाभ होने की संभावना है. मध्यम या दीर्घकालीन दृष्टि से इस बात की काफ़ी संभावना है कि अक्षय ऊर्जा के विस्तार से न केवल कोयला-आधारित बिजली के उत्पादन पर बुरा असर पड़ेगा, बल्कि कोयले के व्यापक खनन की संभावनाएँ भी क्षीण हो सकती हैं. पिछले कुछ वर्षों में जैसे-जैसे अक्षय ऊर्जा के उत्पादन को अनिवार्य विकल्प का-सा दर्जा मिलने लगा है, भारत के कोयला संयंत्रों में प्लांट लोड के फ़ैक्टर काफ़ी घट गए हैं. इसका विपरीत प्रभाव न केवल भारत के कोयला संयंत्रों (जिनका वित्तपोषण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्ज़ से हुआ है) के वित्तीय कार्य-परिणामों पर पड़ा है, बल्कि कोल इंडिया (CIL) से कोयले की निकासी पर भी पड़ा है. पिछले साल कोल इंडिया की स्थिति में अप्रत्याशित बदलाव आया है. उसके कोयले के भंडार में तो बेहद वृद्धि हुई, लेकिन खरीदारों की कमी रही.

2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में दो ऐसी राष्ट्रीय प्रवृत्तियों को उजागर किया गया है, जिनके कारण अक्षय ऊर्जा को अपनाने के कारण वितरण पर पड़े प्रभावों में वृद्धि के संकेत मिलते हैं. पहली प्रवृत्ति तो यही है कि भारत के राज्यों के आर्थिक स्तरों में व्यापक क्षेत्रीय अंतर दिखाई पड़ता है; पूर्वी राज्य आम तौर पर देश के अन्य भागों की तुलना में बहुत पिछड़ गए हैं. दूसरी प्रवृत्ति यह है कि पिछले दशक में पिछड़े राज्यों में संसाधनों के पुनर्वितरण संबंधी अंतरण में भारी वृद्धि होती रही है. अक्षय ऊर्जा को अपनाने और कोयले के स्थान पर अक्षय ऊर्जा को धीरे-धीरे लाने से कोयले वाले राज्यों में रोज़गार में कमी और संसाधनों के अंतरण में वृद्धि के ज़रिये रॉयल्टी और कर-राजस्व की हानि के कारण आय में अंतर होने की आशंका है.

कोयला खनन और इससे सीधे जुड़े उद्योग एक बड़े कल्याणकारी राज्य के महत्वपूर्ण अंग रहे हैं और केंद्र सरकार और झारखंड, ओड़ीसा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के बीच राजकोषीय करार रहा है.   कई दशकों से कोयला खनन से मिलने वाली रॉयल्टी और करों से राज्य के बजट को मदद मिलती रही है और कोल इंडिया (CIL) और उसकी सहायक कंपनियों के खर्च से ही कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR)  के रूप में बहुत हद तक पूर्वी क्षेत्र के दूरस्थ इलाकों के बुनियादी ढाँचे के साथ-साथ उनका सामाजिक विकास होता रहा है और कोयला खनन एवं परिवहन की संस्थाओं के आसपास संरक्षण का गहन नैटवर्क भी विकसित हो गया है. इन इलाकों में कोयला खनन से न केवल आर्थिक गतिविधियों का संचालन होता है, बल्कि राजनैतिक लामबंदी का मुख्य केंद्र भी यही होता है. कोयले से संबंधित गतिविधियों का सामाजिक असर उद्योग के प्रत्यक्ष रोज़गार से कहीं आगे तक होता है. इसलिए इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जब भी कभी कोल इंडिया (CIL) के राष्ट्रीयकरण को समाप्त करने की कोई मुहिम छेड़ी जाती है तो इस इलाके में बड़े पैमाने पर राजनैतिक विरोध शुरू हो जाता है. 

पूर्वी भारत में अक्षय ऊर्जा बनाम कोयले पर बहस मात्र से ही भारतीय निवेश के परिदृश्य पर और बड़ी समस्या दिखाई देने लगती है: राज्यों में निजी पूँजी आने से शासनिक समस्याओं में कमी, बेहतर कारोबारी माहौल और (गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश की तरह) जल्दी रिटर्न मिलने की अधिक संभावनाएँ. इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र और राज्य द्वारा स्वाधिकृत उद्यम (SOEs) राज्यों में निवेश के शून्य को भरने का प्रयास करते हैं, जिसके कारण (पूर्वी भारत जैसे) क्षेत्रों में कारोबारी माहौल और भी खराब हो जाता है. शासन और राज्यों की क्षमता में परिवर्तन बहुत तेज़ी से नहीं हो पाता और यही संभावना रहती है कि निकटभविष्य में केंद्रीय एसओई और अन्य प्रकार के पुनर्वितरण वाले संसाधनों का अंतरण पूर्वी भारत में विकास को गति देता रहेगा.

इस दिशा में दो एसओई परियोजनाएँ पहले से ही चल रही हैं. पहली परियोजना पूर्वी भारत में राष्ट्रीय गैस ग्रिड को लाने की महत्वाकांक्षी परियोजना है. ऐतिहासिक तौर पर भारत में प्राकृतिक गैस की खपत समुद्री तटों पर मौजूदा औद्योगिक क्लस्टर के आसपास स्थित दो कॉरिडोर तक ही सीमित रही है. दूसरी परियोजना यही है कि पावरग्रिड ने हाल ही में पूर्वी भारत पर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया है और इस प्रक्रिया में इस इलाके में राज्य के अनेक क्लस्टरों की योजनाओं को सुदृढ़ किया जा रहा है. इन परियोजनाओं को सफल बनाने के लिए लगभग सौ मिलियन ग्राहकों को इस तरह से पावर और गैस के बाज़ारों से जोड़ना होगा, जैसे अतीत में पहले कभी न हुआ हो. और यह काम बहुत तेज़ी से नहीं हो पाएगा.

अक्षय ऊर्जा की गति को रोका नहीं जा सकता. लागत और पर्यावरण दो ऐसे परिणाम हैं जिनमें ऊर्जा का भारी संक्रमण होता है और यह संक्रमण केवल भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में होता है, लेकिन अरविंद सुब्रमणियन ने इस पहेली को बहुत ही अच्छे तरीके से स्पष्ट किया है, “भविष्य तो अक्षय ऊर्जा का हो सकता है, लेकिन क्या वर्तमान में यह मौजूद है? ” हाल ही में टेरी में दिये गये अपने भाषण में उन्होंने कई आर्थिक कारणों को रेखांकित करते हुए यह बताने का प्रयास किया था कि आखिर क्यों भारत को बहुत जल्दबाज़ी में अल्पकालीन योजना के रूप में चलाई जा रही अक्षय ऊर्जा की गति को धीमा रखना चाहिए, लेकिन अक्षय ऊर्जा की गति को धीमा रखने के कारण केवल आर्थिक नहीं हैं, बल्कि राजनैतिक भी हैं. अमरीका और जर्मनी दोनों की ही कोयला बैल्ट में जब जल्दबाज़ी में ऊर्जा के संक्रमण के रूप में कथित अन्याय किया गया तो लोगों में उसकी लोकप्रिय प्रतिक्रिया यही हुई कि चुनाव में मौजूदा शासन को भारी आक्रोश का सामना करना पड़ा. यदि इसकी तुलना भारत से की जाए तो यह समझ लेना चाहिए कि भारत की कोयला बैल्ट की आबादी कहीं अधिक घनी है और चुनावी दृष्टि से प्रासंगिक भी है. अगर अक्षय ऊर्जा को अपनाने से होने वाले विपरीत परिणामों को रोकने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाये गये तो इन इलाकों में भी ऐसी ही प्रतिक्रिया हो सकती है. दूसरे क्षेत्रों में भी धीमी गति से चलकर भारत ने अनेक समस्याओं को हल किया है—इसलिए ऊर्जा की समस्या को भी इसी तरह से ही हल किया जाना चाहिए.

रोहित चंद्र हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में डॉक्टरेट के प्रत्याशी हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919