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भारत के बाहर भारतीय महिलाओं का चित्रण (निरूपण)

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18/06/2018
रविंदर कौर

भारतीयइतिहासकारों ने भारत में भारतीय महिलाओं और लैंगिक संबंधों की साम्राज्यवादी व्याख्याओं में निहित दृष्टि को विश्लेषित करने के लिए बहुत मेहनत की है. कन्याओं की भ्रूण हत्याओं की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो भी ब्रिटिश इतिहासकारों ने पर्दा प्रथा,सती-प्रथा, बाल-विवाह और दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का उल्लेख करते हुए भारतीय महिलाओं को “नीचे पायदान”पर रखने का प्रयास किया है. तबसेलेकरआजतकबाहरी दुनिया केसामनेइनकुरीतियों के आधार पर ही आलंकारिक रूप में भारतीय महिलाओं को चित्रित किया जाता रहा है, जैसे कि ये महिलाएँ निरंतर दमन की शिकार होती रहती हैं, उन्हें किसी तरह का कोई अधिकार नहीं होता या उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता. यहसहीहैकिब्रिटिश शासन के दौरान इनमें से कई प्रथाएँ खास तौर पर देश के उत्तरी क्षेत्र के कुछ भागों में प्रचलित थीं और ये प्रथाएँ बहुत व्यापक थीं और इन्हें बदलना भी ना-मुमकिन-सा ही था. बाहरीदुनिया ने ब्रिटिश इतिहासकारों की इस टिप्पणी के आधार पर यहसामान्यधारणाबनालीथीकिसभीभारतीय महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय है और वे अमानवीय अत्याचार की शिकार होती रहती हैं.

आज़ादी के बाद भारतीयों के लेखन और समाजशास्त्रीय अध्ययन से भारतीय महिलाओं के जीवन की अधिक सूक्ष्म तस्वीर सामने आई.इन अध्ययनों में महिलाओं की अलग-अलग परिस्थितियों और जाति, वर्ग, और क्षेत्र के आधार पर उनके सामाजिक दर्जे और जीवन पद्धति के आधार पर अधिक ध्यान दिया गया था. महिलाओं का दर्जा उनकी शिक्षा और पारिवारिक समृद्धि पर भी निर्भर करता था.

अभी हालहीमेंदुनिया-भर में प्रचारित बलात्कार के नृशंस कांडों (खास तौर पर दिसंबर 2012 को राजधानी दिल्लीमें हुए “निर्भया” बलात्कार ) के आधार पर दिल्ली को “भारत की बलात्कार-राजधानी” केरूप में घोषित किया जाने लगा था और दिल्ली को महिलाओं के लिए सबसे अधिक असुरक्षित क्षेत्र माना जाने लगा था. समाजमेंमहिलाओं की निम्न स्थिति को सार्वजनिक तौर पर बार-बार रेखांकित किया जाता रहा, जिसके कारण सारी दुनिया को लगने लगा कि भारतीय महिलाओं कीस्थिति अभी-भी “पाशविकऔरबदतर” बनीहुईहै.  

इसस्थितिमेंभारी सुधार लाने और लैंगिक समानता के लिए तीव्र आंदोलन करने की आवश्यकता को लेकर कुछ मतभेद तो हैं, लेकिन मैं इस बात की छानबीन करना चाहूँगी कि भारतीय और गैर-भारतीय लोग पश्चिमी जगत् के सामने भारतीय महिलाओं को किस तरह से निरूपित करते हैं, जिसके कारण आज भी उन्हें ऐसे देखा जाता है, जैसे वे कई प्रकार के अत्याचार झेलती हैं और उनके इस नज़रिये में उनके अनुभवों की जटिलता और विविधता को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है.

उदाहरण के लिए अप्रैल, 2018 को कैनेडियन ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन के एक कार्यक्रम करेंट  मेंएकइंटरव्यू लिया जा रहा था, जिसमें बातचीत का विषय था,“क्या भारत में लैंगिक असंतुलन के कारण ही महिलाओं पर हिंसा में वृद्धि हो रही है?” काफ़ीशोध के बाद लिखा गया यह लेख वाशिंगटन पोस्ट के 18 अप्रैल, 2018 के अंक में “बहुतअधिकपुरुष” (“Too Many Men) ” शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. इस कार्यक्रम में मैं और एक और भारतीय रुचिरा गुप्ता भी मेहमान के तौर पर शामिल हुए थे.

भारतमेंलैंगिकअनुपातकेअसंतुलनऔरउसकेदुष्परिणामोंपरढेर सारे सवाल पूछने के बाद रेडियो के मेज़बान, गुप्ता ( जो न्यूयॉर्क में अपने-आप नाम से मानव तस्करी विरोधी संगठन चलाती हैं) की ओर मुखातिब हुए. गुप्ता ने भारतीय महिलाओं और बच्चों की दर्दनाक तस्वीर खींचनी शुरू की, जिसमें बताया गया कि ये महिलाएँ और बच्चे मानव तस्करी, जबरन वेश्यावृत्ति, बलात्कार, यौन दासता और परिवार के अंदर भेदभाव जैसे अनेक अत्याचारों के शिकार होते हैं. ज़ाहिर था कि गुप्ता ने जिस अंदाज़ से और सनसीखेज़ तरीके से भारतीय महिलाओं की दास्तान पेश की थी, वह कैनेडियन (ज़्यादातर गोरे) श्रोताओं और दर्शकों के लिए ही थी. उसे लगा होगा कि ये लोग उसके निरूपण को बिना किसी सवाल-जवाब के ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेंगे. उसनेबतायाथा, “अगरकन्याभ्रूण को नहीं गिराया जाता तो भी सयानी होने पर उसे वेश्यावृत्ति के धंधे के लिए बेच दिया जाता या फिर बचपन में ही घरेलू नौकर की तरह काम करते हुए उसका यौन शोषण किया जाता. वहयहबातऐसेबतारहीथीकिमानो हर भारतीय लड़की की यही कहानी है. ऐसेनिरूपणमेंसाक्षरताऔरशिक्षाकेक्षेत्रमेंभारतीयलड़कियोंनेकामयाबीकेजोझंडेगाड़ेहैं, उसकीपूरीअनदेखी कर दी जाती है. आज भारतीय लड़कियाँ स्कूल की अंतिम परीक्षाओं में लड़कोंसेबेहतर प्रदर्शन कर रही हैं. गुप्ताद्वारा पेश की गई तस्वीर से ठीक विपरीत तस्वीर भी पेशकीजासकतीथी, जैसेपुरस्कार विजेता महिला खिलाड़ियों, इसरो की वैज्ञानिक महिलाओं, एयर लाइन में काम करने वाली महिला पायलटों या मीडिया में शानदार ढंग से ऐंकरिंग करती महिलाओं और लाखों की संख्या में स्कूल और कॉलेज जाती लड़कियों की तस्वीर भी पेश की जा सकती थीयाफिरआपबलात्कार और लैंगिक अपराधों के बढ़ते आँकड़ों को भी विनम्रता से पेश कर सकते थे. ये आँकड़े निश्चय ही भारत के लिए शर्मनाक हैं. हो सकता है कि गुप्ता जिन लोगों के सामने यह तस्वीर पेश कर रही है, उनके देशों के हालात भारत से भी बदतर हों. भारतमेंजहाँसन् 2010 में 100,000 कीआबादीमें 1.8 बलात्कार के मामले हुए थे, वहीं अमरीका में यह संख्या 27.8 थी. होसकताहैकिभारतमेंलैंगिकअपराधोंकीसंख्यामेंवृद्धिकाकारणऐसेमामलोंकीरिपोर्टिंगकीसंख्या में वृद्धि हो या फिर वास्तव में ही ऐसी वारदातों में वृद्धि हुई हो, लेकिन निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले हमें इसकी गंभीर छानबीन कर लेनी चाहिए.

इसविषय पर चर्चा करते हुए गुप्ता ने दावा किया था कि “जनसांख्यिकीयविभाजन (लैंगिक अनुपात में असंतुलन) केकारणभीभारतकेएकभाग से दूसरे भाग में महिलाओं और लड़कियों की मानव तस्करी में वृद्धि हुई है.” बादमेंउन्होंने यह भी कहा, कि “नीचीजाति के बेहद गरीब परिवारों की लड़कियों को उच्च-वर्ग और ऊँची जाति के पुरुषों के पास भेजकर उन्हें यौन-शोषण के लिए बाध्य किया जाता है और उन्हें हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के गाँवों में ले जाया जाता है. वहाँ उनका इस्तेमाल मर्दों की चल संपत्ति की तरह किया जाता है और इन पुरुषों के लिए ये यौन-दासी की तरह काम करती हैं. ”

इन बयानों की पुष्टि के लिए उनके पास कोई साक्ष्य नहीं था. गुप्ता की तरह विशेषज्ञ के रूप में मैं भारत में महिलाओं और बच्चों की मानव तस्करी पर बोलने का दावा तो नहीं करना चाहूँगी, लेकिन अपने पंद्रह साल के अनुभव के आधार पर भारत की “बहुओं के लिए भूखे” क्षेत्रों में “बंधक बहुओं” के रूप में आम तौर पर निरूपित महिलाओं के बारे में मैं ज़रूर बोलना चाहूँगी. गुप्ता जैसे लोग अपनी रिपोर्ट में मानव तस्करी से लाई गई महिलाओं को प्रवासी महिलाओं से जोड़कर महिलाओं से उनकी पसंद का जीवन जीने के बारे में निर्णय लेने का अधिकार भी छीन लेते हैं. भारतीय महिलाओं की दयनीय अवस्था को इस ढंग से निरूपित करके पश्चिम में बसे चैम्पियन दावा करते हैं कि वे भारतीय महिलाओं की आवाज़ उठाते हैं, जबकि वास्तविकता से उनका कोई वास्ता नहीं होता और न ही उन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास होता है कि भारतीय महिलाएँ अपने-आपको कैसे निरूपित करना चाहती हैं. स्वयंभू नारीवादी सक्रिय कार्यकर्ता के लिए यह एक गंभीर समस्या है, जबकि खास तौर पर सबाल्टर्न अर्थात् निचले दर्जे की बहू / बंधक बहू अंग्रेज़ी न जानने के कारण अपनी आवाज़ भी नहीं उठा पाती, क्योंकि न्यूयॉर्क की गलियों में तो एक ही भाषा गूँजती है और वह है, अंग्रेज़ी. अभीतकलैंगिकअनुपातकेअसंतुलन और मानव तस्करी या लैंगिक हिंसा में वृद्धि के बीच कारण-कार्य संबंधों की पुष्टि के लिए कोई गंभीर साक्ष्य हमारे सामने नहीं है.बहरहाल, भारत के विषमलैंगिकअनुपातवालेक्षेत्रों में विभिन्न क्षेत्रों से आई बहुओं पर किये गए गंभीर शोध-कार्यों से यह पता चलता है कि मानव तस्करी की बहुत कम वारदातें हुई हैं, लेकिन अधिकांश महिलाओं को “विवाह प्रवासन की श्रृंखला” कीप्रक्रिया के माध्यम से ही लाया जाता है. हमारानिष्कर्षयहभीहैकिअधिकांशप्रवासीमहिलाएँअपने मायके की तुलना में आर्थिक दृष्टि से बेहतर स्थिति में हैं, जबकि अन्य महिलाएँ अपने घर की बदहाल स्थिति से पलायन के लिए ही अलग क्षेत्र के पुरुषों से शादी रचाती हैं. 

प्रवासीबहुएँमहिलाओंकेलिएबेहतर संबोधन है. उन महिलाओं को, जिन्होंने भारत के विषम लैंगिक अनुपात वाले क्षेत्रों के पुरुषों से विवाह किया है,यह कहना कि पुरुष उनका इस्तेमाल “चल सम्पत्ति या यौन गुलामों” की तरह करते हैं, भारी अतिशयोक्ति है. कईविद्वानों द्वारा एकत्र की गई नृवंश विज्ञान संबंधी सामग्री से अनेक ऐसे तथ्य सामने आए हैं, जिनमें अलग-अलग महिलाओं का बर्ताव भिन्न-भिन्न होता है. “यौनदासियों” केरूपमेंउनकेइस्तेमाल के लिए कोई साक्ष्य नहीं मिलता और इस शब्द का प्रयोग तो मात्र रोमांच के लिए किया जाता है.

यहतर्ककिलैंगिक अनुपात के असंतुलन के कारण ही गरीब और नीची जाति की महिलाओं को उत्तर भारत के उच्च वर्ग के और ऊँची जाति के धनी पुरुषों को “यौनाचार के लिए उपलब्ध” करा दिया जाता है, एक पीड़ादायक शब्दाडंबर और मिथ्या दोषारोपण ही है. आवश्यकता इस बात की है कि इस पर गंभीरता से अनुसंधान किया जाए. अनुसंधान से पता चला है कि इनमें से कुछ पुरुष ऊँची जाति के ज़रूर थे, लेकिन इनमें बहुत कम संपन्न या संभ्रांत परिवारों से थे ; असल में तो ये लोग ऐसे घाटे में रहने वाले पुरुष थे, जो शादी की मंडियों में “खप” नहीं पाए थे. इन पुरुषों के पास न तो अपनी ज़मीन थी, न शिक्षा और न ही कोई रोज़गार. हिंसावृत्ति वाले पितृसत्तात्मक समाज के पुरुष होने के बजाय वे अपने जीवन से हताश और निराश हो गए थे, जो अपने ही क्षेत्र की महिलाओं से ब्याह रचाने लायक भी नहीं थे.

गुप्तानेजिनअधिकांशस्रोतों के आधार पर उक्त बयान दिया है, वह पश्चिम में रिपोर्टिंग करने वाले ऐसे लोकप्रिय मीडिया हैं, जो सतही जानकारी के आधार पर ऐसी सूचनाएँ एकत्र करते हैं. सन् 2016 मेंअल-जज़ीरानेएकवृत्तचित्र प्रदर्शित किया था, जिसका शीर्षक था, भारत की गुलाम बहुएँ.इसीनिरूपणको “दCNNफ्रीडम प्रोजेक्ट ” केहालियाअभियानसे और भी बल मिला, जिसके विज्ञापन में कहा गया था, “सन् 2011 से CNN आधुनिक ढंग की गुलामी पर प्रकाश डालता रहा है.” इसीकार्यक्रम में भारत की प्रवासी बहुओं का एक खंड भी शामिल है.

दुनियाभरमेंप्रस्तुत ऐसे निरूपणों में हम “गोरेआदमी के बोझ” काएक नया अवतार देख रहे हैं, जिसमें पश्चिम में बसे भारतीय अपनी परियोजनाओं के लिए नाम और पैसा जुटाने के लिए खेल खेलते हैं. यहसवालकरतेहुएमैंमानवतस्करीयायौन शोषण से जुड़े अनेक संगठनों के बेहद कठिन और महत्वपूर्ण काम का महत्व कम नहीं करना चाहती, मैं सिर्फ़ यही कहना चाहती हूँ कि हमें ऐसी महिलाओं के लिए भी गुंजाइश रखनी चाहिए जो अपनी पसंद से जीवन के विकल्प चुनती हैं. निरूपणसत्यकेकरीबहोनाचाहिएऔरसत्यभीऐसाजिसकी जानकारी उपलब्ध कराई जा सकती हो.

रविंदरकौरदिल्लीस्थितभारतीयप्रौद्योगिकीसंस्थानके मानविकीऔरसमाजविज्ञान विभाग में समाजशास्त्र और नृवंश विज्ञान की प्रोफ़ेसर हैं. वसंत (स्प्रिंग) 2018 मेंवह कैसी में विज़िटिंग स्कॉलर थीं.  

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919