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राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) क्या है ?

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05/07/2016
मेखला कृष्णमूर्ति
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इसी साल के आरंभ में अप्रैल के मध्य में प्रधान मंत्री ने राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) का उद्घाटन किया था, जिसका उद्देश्य कृषि उत्पादों  (e-nam.gov.in) के लिए एकीकृत राष्ट्रीय मंडी का निर्माण करना था, ताकि मौजूदा कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) की मंडियों के नैटवर्क के लिए एकीकृत अखिल भारतीय इलैक्ट्रॉनिक व्यापार पोर्टल को डिज़ाइन किया जा सके. सबसे पहले राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) का प्रस्ताव 2014-15 के केंद्रीय बजट में किया गया था. इस समय यह अपने प्रायोगिक चरण में है और इसके अंतर्गत 8 राज्यों में फैली 21 मंडियाँ और 11 कृषि उत्पादन आते हैं. इसका उद्देश्य सन् 2018 तक 585 मंडियों को एकीकृत करना है, जो भारत की लगभग 7,500 नियमित मंडियों का केवल 8 प्रतिशत है. निश्चय ही देश भर की मंडियों में और मंडियों के बाहर विपणन और व्यापार किये जाने वाले कृषि उत्पादनों की विशाल श्रृंखला का यह बहुत छोटा-सा ही अंश है.

इस आरंभिक चरण में तो और भी ध्यान से यह समझना होगा कि राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) के ढाँचे के भीतर वस्तुतः वे कौन-से प्रस्तावित उपाय हैं, जिन्हें भारत की जटिल और अलग-अलग प्रकार की कृषि मंडियों में सार्थक सुधार लाने से संबंधित बदलाव लाने की तमाम संभावनाओं के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने के बजाय वास्तविक रूप में लागू किया जा सकता है.

दो सबसे अधिक महत्वपूर्ण विनियामक सुधार तो यही होंगे कि राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) का लाइसेंस एक ही होना चाहिए, जो राज्य की मंडियों में हर प्रकार की खरीदारी के लिए वैध हो और मंडी-शुल्क की वसूली के लिए एक ही पॉइंट हो. स्थानीय मंडी की मौजूदा लाइसेंसिंग प्रणाली में यह सुधार बेहद महत्वपूर्ण परिवर्तन है. जो लोग कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) से अच्छी तरह परिचित हैं, वे यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि नये खरीदारों के लाइसेंस पर पाबंदी लगाना और उनसे किराया वसूल करना हमेशा ही कितनी बड़ी समस्या रही है और इसके कारण यह खास तौर पर राज्य के बाहर की पार्टियों और उनके मज़बूत नैटवर्क के लिए अक्सर प्राथमिक मंडियों के खरीदार संघ तक ही सीमित रह जाता है. इसलिए यह कदम बेहद महत्वपूर्ण है और इसके लिए विधायी कार्रवाई भी अपेक्षित है.

महत्वपूर्ण बात तो यह है कि खरीदार का केंद्र कोई भी क्यों न हो, किसी खास मंडी में किसानों द्वारा की गई सभी प्रकार की बिक्री के लिए (लेन-देन के पहले पॉइंट पर वसूला गया) मंडी-शुल्क राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) द्वारा ही वसूला जाएगा. यह कदम व्यावहारिक लगता है और इसे केवल कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) को दी गई रियायत के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए. बाहरी मार्केटिंग की लागत और बाधाओं को देखते हुए किसान आम तौर पर अच्छे मूल्य की तलाश में अपनी उपज को सुदूर मंडियों में ले जाने में हिचकते हैं. उनके लिए यह बेहद ज़रूरी है कि स्थानीय मंडियाँ अधिक प्रतिस्पर्धी, एकीकृत और सुनियोजित हों, जहाँ स्थानीय व्यापारी और स्थानीय ऑनलाइन खरीदारों से इतर खरीदार भी किसानों द्वारा उनकी मंडियों में लायी गयी उपज की बोली लगा सकें.

राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) का तीसरा प्रमुख तत्व है, मंडी प्रणाली में इलैक्ट्रॉनिक नीलामी की शुरुआत. यह मोटे तौर पर पिछले कुछ वर्षों में कर्नाटक में NCDEX के राष्ट्रीय स्पॉट ऐक्सचेंज (अब नैशनल ई-मंडी लिमिटेड (NeML) की भागीदारी में विकसित और कार्यान्वित ई-नीलामी प्लेटफ़ॉर्म पर व्यापक रूप में आधारित है, जिसकी शुरुआत गुलबर्गा की तुअर दाल की मंडी हुई थी. सन् 2014 के कैसी यूपेन के वर्किंग पेपर के रूप में गुलबर्गा मंडी की शोध परियोजना प्रकाशित हुई थी. कैसी के निदेशक देवेश कपूर इसके सह-लेखक थे. इसका विषय था: “Understanding Mandis: Market Towns and the Dynamics of India’s Rural and Urban Transformations”  अर्थात् “मंडियों को समझना: बाज़ारी कस्बे और भारत के ग्रामीण और शहरी कायाकल्प का गतिविज्ञान”. इस पेपर में यह पाया कि इस मंडी में परिवर्तन बहुत सफल रहा है, भले ही मैनुअल टेंडरिंग से ई-टेंडरिंग प्रणाली में परिवर्तन की प्रक्रिया में बहुत-सी दिक्कतें सामने आई थीं.  इसके कारण मंडी के बाहर के दिलचस्पी रखने वाले खरीदार भी नीलामी में भाग लेने लगे और इससे निविदा प्रक्रिया में खासी तेज़ी आ गई और संभवतः मूल्य डिलीवरी भी पारदर्शी हो गई. फिर भी मंडी के अलग-अलग स्थलों पर अपनाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की नीलामी प्रक्रियाओं की आपेक्षिक विशेषताओं और कमज़ोरियों का अनेक प्रकार से गहन मूल्यांकन करना होगा. वस्तुतः बुनियादी माल और कृषि-उद्योग संबंधी उत्पादों की सैम्पलिंग और मानकीकरण से जुड़ी भारी चुनौतियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं. सामान्यतः देश भर के विभिन्न क्षेत्रों और उप-क्षेत्रों में विभिन्न स्थितियों और बाधाओं के अंतर्गत की गयी छोटी जोत की खेती से मंडियों में लायी गई उपज की गुणवत्ता में भारी घट-बढ़ को समायोजित करने की आवश्यकता के साथ-साथ व्यापक भागीदारी को बढ़ाने के लिए ग्रेड और मानकों को संतुलित करने की भी आवश्यकता है.  

चूँकि कर्नाटक के अनुभव (और मध्य प्रदेश में किये गये मेरे अपने काम और ऋचा कुमार के काम) दर्शाते हैं कि इलैक्ट्रॉनिक प्लेटफ़ॉर्म और डिजिटल टैक्नोलॉजी  को लागू  करने से मध्यस्थहीनता की स्थिति, जिसे बढ़ा-चढ़ाकर बोलकर स्वतः ही लोकप्रिय बना दिया गया है, पैदा नहीं होती. असल में तो वास्तविक कृषि मंडियों में यह निस्संदेह गुमराह करने की कोशिश ही सिद्ध होती है. उदाहरण के लिए, गुलबर्गा जैसी ई-नीलामी की मंडियों में किसान-विक्रेता कमीशन एजेंटों और माल के बड़े व्यापारियों – दोनों के साथ ही जुड़े रहते हैं और  प्रोसेसर सैम्पलिंग से लेकर डिसपैच तक की प्रक्रिया से पूरी तरह जुड़े रहते हैं और इस प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका भी निभाते हैं. मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में, जहाँ कच्चे आढ़तिये या क्रैडिट-आधारित किसानों से जुड़े कमीशन एजेंट अनाज, दाल और तिलहनों के लिए नियमित मंडियों में ऑपरेट नहीं करते, लेकिन ई-नीलामी वाली मंडी संबंधी बोली के बाहर के खरीदारों के लिए आवश्यक है कि ई-नीलामी वाली मंडी संबंधी बोलियों में अपनी खरीद के वास्तविक स्थानांतरण, संग्रहण और लाने-जाने के प्रबंधन के लिए स्थानीय एजेंट मौजूद रहें. निश्चय ही नये वेयरहाउसिंग और लॉजिस्टिक्स ऑपरेटर भी आएँगे और मौजूदा बिचौलियों को अपने-आपको बदलना होगा या फिर मंडी से बाहर जाना होगा और उनकी मौजूदा भूमिकाएँ (क्रैडिट सहित) भी महत्वपूर्ण रूप में बनी रहेंगी. यहाँ हमें माल की ढुलाई के ब्लैक बॉक्स के महत्व को भी खास तौर पर समझना होगा. उदाहरण के लिए, कर्नावट में तुअर दाल की सप्लाई चेन पर किये गये हमारे अध्ययन से हमें पता चला है कि माल की ढुलाई संबंधी सप्लाई चेन पर ही 14 प्रतिशत लागत आती है. वास्तविक रूप में मंडी तक कृषि उत्पादों के परिवहन-नैटवर्क की आंतरिक कार्यप्रणाली को समझना नये शोध का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है.

अंततः कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) के अपेक्षाकृत अधिक विकसित नैटवर्क वाले राज्यों में खास तौर पर छोटे और सीमांत किसानों के लिए मंडी तक पहुँचना अभी-भी मुश्किलों से भरा है. यह समस्या बिहार जैसे राज्यों के उन किसानों के लिए बेहद विकट और भयावह है, जहाँ कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC ) अधिनियम को या तो निष्प्रभावी कर दिया गया है या फिर जहाँ अधिकतर अनियमित मंडियाँ व्यापारियों और कमीशन एजेंटों के बीच के द्विपक्षीय लेन-देन के आधार पर बनी हैं.

जहाँ एक ओर राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM), मंडियों में निवेश के लिए, उनके स्तर को बढ़ाने के लिए और दस साल तक उनको हटाने का आंदोलन करते रहने के बाद अब नई मंडियाँ खोलने का एक सुनहरा मौका है, वहीं हमें उन तमाम उत्पादकों की चुनौतियों का मुकाबला करना होगा, जो अभी-भी मार्केट यार्ड के बाहर बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में लेन-देन के चक्कर में फँसे हैं. सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM)  की परिकल्पना को इलैक्ट्रॉनिक प्लेटफ़ॉर्म के निर्माण से भी आगे ले जाना होगा. इसके बजाय, इसे एक ऐसे अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए, जिससे मंडी में सुधार लाने के लिए अधिक व्यापक और अधिक प्रासंगिक दृष्टिकोण अपनाया जा सके. इसमें वर्षासिंचित क्षेत्रों में काम करने वाले छोटे और सीमांत किसानों की उत्पादक कंपनियों जैसे नयी और आशाजनक संस्थागत सपोर्ट को भी शामिल किया जाना चाहिए. और शायद सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि हमें अधिक कुशल और समावेशी वसूली ऑपरेशन पर अधिक ज़ोर देना होगा, जिसके कारण कम सुविधा वाले उन क्षेत्रों और उत्पादों (विशेषकर दाल और बाजरे) को न्यूनतम सहायता मूल्य (MSPs) का लाभ मिल सकेगा, जहाँ पहले से ही सरकारी वसूली को सपोर्ट देने के लिए उपयुक्त टैक्नोलॉजिकल प्लेटफ़ॉर्म ( ई-नीलामी और रिवर्स नीलामी सहित) के उदाहरण मौजूद हैं.

इसे संभव बनाने के लिए ज़रूरी नहीं है कि राज्य, राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) से जुड़ें, बल्कि राष्ट्रीय कृषि मंडी (NAM) को भी विविध प्रकार की कृषि-राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओँ से, विनियामक गतिविधियों से और भारत के राज्यों की विशिष्ट आवश्यकताओं से जुड़ना होगा. जैसा कि हमने हाल ही के पिछले कुछ हफ़्तों में देखा है कि साझे बाज़ार के लिए वार्ताओं के दौर और उनका रख-रखाव हमेशा ही कठिन रहा है, भले ही उनमें कितनी ही संभावनाएँ क्यों न मौजूद हों.

मेखला कृष्णमूर्ति शिव नाडर विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान की सह प्रोफ़ेसर हैं और कैसीमें अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919