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संस्थागत बदलाव को समझने के लिएः विचारों और शासन तंत्र पर पुनर्विचार करना होगा

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29/03/2021
हिमांशु झा

हाल ही के समय तक भारत में शासन तंत्र की प्रक्रिया रहस्य के पर्दे में ढकी रही है. यह गुलामी के दिनों का पुनरावर्तन है. उन दिनों कानून का शासन ऑफ़िशियल सीक्रेट ऐक्ट, 1923 (OSA),द सिविल सर्विसेज़ कंडक्ट ऐक्ट रूल्स (1964) और इंडियन ऐविडेंस ऐक्ट (1872) की धारा 1, 2 और 3 और भारत सरकार की नियमावली और कार्यालय प्रक्रिया जैसे कानूनों से संचालित होता था. 2005 में सूचना अधिकार अधिनियम (RTIA) के लागू होने के बाद इसमें परिवर्तन आ गया. यह एक ऐसा अधिनियम था जिसमें भारत के नागरिकों को अधिकार दिया गया कि उन्हें सरकारी सूचनाओं को हासिल करने का कानूनी अधिकार होगा. गंभीर कानूनी वचन बद्धता में जो गुप्तता के मानक का प्रावधान था, उसमें बदलाव कर दिया गया और इस प्रकार पारदर्शिता की ओर एक कदम और बढ़ा दिया गया. इस प्रकार के संस्थागत बदलाव का क्या मतलब है?

मैंने अपनी पुस्तक Capturing Institutional Change: The Case of the Right to Information Act 2005 में ऐतिहासिक संस्थाओं के लैंस का उपयोग यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि यह संस्थागत बदलाव क्यों और कैसे किया गया. जन आंदोलन की परिणामकारी भूमिका पर ज़ोर देने वाले प्रबल विमर्श से आगे बढ़कर  लोकप्रिय राजनैतिक शासन- तंत्र द्वारा उत्पन्न राजनैतिक अवसरों या घने पारस्परिक संभ्रांत नैटवर्क के संबंध में मेरा यह तर्क है कि RTIA 1947 में भारत की स्वतंत्रता से लेकर अब तक अंदर ही अंदर पनपने वाले “विचारों” की धीमी गति से निरंतर आगे बढ़ती प्रक्रिया की परिणति ही है. मैं सामजिक नैटवर्क (सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, विधिवत्ताओं, अकादमिक विद्वानों, सेवारत और भूतपूर्व नौकरशाहों और राजनेताओं) की भूमिका को भी स्वीकार करता हूँ. लेकिन मैं कारण बताने वाले तत्वों की श्रृंखला में महत्वपूर्ण व्याख्यापरक लिंक के तौर पर शासन-तंत्र और विचारों पर फिर से विचार करना चाहूँगा; क्योंकि यही वे महत्वपूर्ण लिंक हैं, जो मुख्य धारा के विमर्श में पूरी तरह अनुपस्थित हैं. इस प्रक्रिया को “क्रमबद्ध टिपिंग पॉइंट” के मॉडल के माध्यम से समझाया जाता है. टिपिंग पॉइंट विचारों के आधार पर आगे बढ़ने वाली राजनैतिक सत्ता के माध्यम से धीमी गति से खास तौर पर अंदर ही अंदर संचालित प्रक्रिया की परिणति है. परत दर परत एक नया मानक मौजूदा संस्थागत ढाँचे की परिधि पर उभरता है और न्यूनतम मूल गुणों के रूप में विकसित होकर अंततः उसका क्षरण हो जाता है. इस मामले में परत दर परत विकसित होने की यह प्रक्रिया दो चरणों में होती है.

चरण 1: 1947-1989
पहली परत में खुले विचार गुप्त शासन तंत्र की परिधि में विकसित होकर सरकारी समितियों की रिपोर्टों में और न्यायपालिका एवं विरोधी दलों द्वारा पारदर्शिता के लिए की गई माँग के कारण सामने आने लगे थे. उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता से लेकर सत्तर के दशक के आरंभिक काल तक गठित की गई विभिन्न सरकारी समितियों (जैसे Appleby समिति 1953, प्रेस कानून जाँच समिति 1948, संथानम समिति 1964, देशमुख अध्ययन दल 1968 की रिपोर्टें और विधि आयोग 1971 की 43 वीं रिपोर्ट) ने सरकारी दस्तावेज़ों को गुप्त रखे जाने पर सवाल उठाये थे, पारदर्शिता का समर्थन किया था और इस बात की सिफ़ारिश की थी कि सरकारी कार्यों में यथासंभव पारदर्शिता लाई जानी चाहिए.

यह उल्लेखनीय है कि 1965 में विरोधी सदस्यों की माँग पर लोकसभा के अध्यक्ष हुकुम सिंह ने एक महत्वपूर्ण व्यवस्था दी. इस व्यवस्था में कहा गया कि किसी भी दल के संसद सदस्यों को यह संसदीय विशेषाधिकार होगा कि वे गोपनीय दस्तावेजों से किसी भी सूचना को खुलकर उद्धृत कर सकते हैं. यह नीतिगत कदम वस्तुतः संसद के विरोधी दल के सदस्यों द्वारा संसद के पटल पर बार-बार उठाये गए पारदर्शिता के इर्द-गिर्द उभरते “विचारों” का प्रतीक था.  

न्यायपालिका ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के बुनियादी अधिकार प्रदान करने से संबंधित भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 1 (क) पर विचार करते हुए पारदर्शिता की मूलभूत संकल्पना को स्पष्ट किया था. इन महत्वपूर्ण प्रकरणों के संबंध में न्यायपालिका ने स्वीकार किया था कि लोकतंत्र में सूचना को प्रकट करने की आवश्यकता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के बुनियादी अधिकार के बीच साफ़ तौर पर गहरा संबंध है.

भले ही पारदर्शिता का विचार शासन तंत्र की परिधि के अंदर से उभर कर सामने आया था, फिर भी गुप्तता से आवृत मानक और गहन होता चला गया. इस व्यवस्था के कुछ महीनों के बाद ही केंद्रीय मंत्रियों को एक नोट भेजा गया था कि सभी केंद्रीय मंत्री आधिकारिक गुप्त सूचनाओं को लीक न होने दें. उसके बाद 1967 में आधिकारिक गुप्त अधिनियम (OSA) में संशोधन करके उसे और भी सख्त बना दिया गया.

जब सत्ता की बागडोर 1977 में जनता पार्टी ( विरोधी दलों के गठबंधन के साथ) की अगुआई में विरोधी पक्ष के हाथ में आई तो सरकारी मामलों में अधिकाधिक पारदर्शिता लाने के लिए ठोस नीतिगत कदम उठाये गए. सन् 1977 में गृहमंत्री चरण सिंह ने आधिकारिक गुप्त अधिनियम (OSA) में अपेक्षित सुधारों पर विचार करने और सरकारी सूचना को सार्वजनिक करने से संबंधित विषयों पर विचार करने के लिए मुख्यतः नौकरशाहों की एक कार्यसमिति गठित की- यह पहला अवसर था जब सत्ताधारी पार्टी ने इस विषय में नीतिगत पहल की थी. लेकिन मुख्यतः नौकरशाहों को लेकर गठित इस समिति ने यह निष्कर्ष निकाला कि आधिकारिक गुप्त अधिनियम (OSA) में कोई संशोधन न किया जाए और इसे ज्यों का त्यों ही रखा जाए. इस अधिनियम में गुप्तता का मानक इतना गहरा था कि जब विरोधी पक्ष सत्ता में आया तो भी सिस्टम में बदलाव नहीं कर पाया.

जनता पार्टी के उत्तर काल में पारदर्शिता के उभरते विचार परिधि से हटकर नीति के केंद्र में आने लगे. ये विचार सरकारी संस्थाओं के लहजे और रिपोर्टों में झलकने लगे.  उदाहरण के लिए, भारतीय जन प्रशासन संस्थान, भारतीय विधि संस्थान और प्रैस कमीशन की 1980-82 की रिपोर्टों में यह सिफ़ारिश की गई थी कि आधिकारिक गुप्त अधिनियम (OSA) की धारा 5 को रद्द कर दिया जाए और उसके स्थान पर ऐसे प्रावधान किये जाएँ, जिनसे नागरिकों को सरकारी मामलों से संबंधित सूचनाएँ प्राप्त हो सकें. जनता पार्टी के घोषणा पत्र का असर ठोस नीति बनाने की प्रक्रिया और संसद पर भी पड़ा. लोक दल पार्टी के राज्यसभा के सदस्य जी.सी. भट्टाचार्य ने, जो 1977 में जनता पार्टी की गठबंधन सरकार में भी थे, संसद में सूचना की आज़ादी पर पहला बिल पेश किया था. 1984 में जनता पार्टी के सुब्रमणियम स्वामी ने लोकसभा में इसी तरह का एक और बिल पेश किया. हैरानी की बात यह है कि बुनियादी तौर पर इस बिल में और मौजूदा RTIA में विलक्षण साम्य था. इसके साथ ही, न्यायपालिका ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) की व्याख्या करते हुए अपने पक्ष को स्पष्ट कर दिया कि "जानकारी हासिल करने का अधिकार" इसमें सहज रूप में ही निहित था और यही कारण है कि 1975 में राजनारायण प्रकरण और 1982 में एस. पी. गुप्ता के प्रकरण के संबंध में न्यायपालिका द्वारा दिये गए न्यायिक फैसले में यह बात प्रकट हो गई.

हालाँकि सरकार के अंदर विभिन्न पक्षों ने इस पर न केवल सवाल उठाये, बल्कि आज़ादी के बाद से लेकर अब तक के गुप्तता के मानक को चुनौती भी दी और यह स्थिति अब भी जस की तस है. इसी तरह का एक कदम जाँच आयोग अधिनियम, 1952 में 1986 में संशोधन का यह प्रयास भी था कि इस आयोग को संसद से कोई सूचना छिपाने का अधिकार भी दिया जाए.  

चरण II: 1989-2005
दूसरी परत में पारदर्शिता के पहले उभरते विचारों को सरकारी सोच में भी काफ़ी बल और गति मिली और इसका संक्रमण "विपक्षी राजनीति" के दायरे से हटकर "मुख्यधारा की राजनीति" में होने लगा. और यह सोच 1989 से लेकर अब तक के चुनावी घोषणा पत्रों में राजनैतिक और नीतिगत प्रतिबद्धता के रूप में प्रकट होने लगी और इसके आंतरिक ज्ञानपरक पक्ष पर आम सहमति बनाने के लिए कार्यशालाओं और सम्मेलनों का आयोजन किया जाने लगा, उप राष्ट्रीय स्तर पर पहल की जाने लगी और न्यायपालिका द्वारा “सूचनाओं पर नागरिक अधिकार” का निर्वचन संविधान में निहित बुनियादी अधिकारों के रूप में किया जाने लगा. विचित्र बात तो यह है कि 1991-96 के बीच कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में इस तरह की गतिविधियाँ हुईं. वस्तुतः 1994 में सरकारी विभागों को कांग्रेस पार्टी ने तमाम प्रलेखों (“परम गुप्त” से लेकर “गोपनीय” तक) को वर्गीकृत और अवर्गीकृत करने से संबंधित निर्देश देने के लिए 1966 में जारी किये गए विभागीय जाँच के अनुदेशों की नियमावली में संशोधन करके गुप्तता के मानक को सुदृढ़ किया और उसे बनाये रखा. अपेक्षा यह की जा सकती थी कि उत्तर उदारीकरण चरण में सत्ताधारी पार्टी द्वारा सूचनाओं को हासिल करने के लिए कहीं अधिक उदार रवैया अपनाया जाता.  

1998 तक पिछले विचारों का महत्व एक महत्वपूर्ण बिंदु तक पहुँच गया. पहले से ही चली आ रही नीतिगत प्रक्रियाएँ एक मकसद के साथ अधिक तीव्रता से चलने लगीं. जोश-खरोश के साथ नीतिगत प्रक्रियाएँ चलने लगीं और इन विचारों के अनुरूप सूचनाओं को हासिल करने के लिए विधायी संभावनाओं की खोज के लिए सरकारी समितियाँ बनने लगीं, अंतर-मंत्रालयीन कार्यबल गठित होने लगे, मंत्री-समूह गठित होने लगे और टिपिंग पॉइंट तक पहुँचने के प्रतीक स्वरूप सूचना अधिनियम, 2003 की आज़ादी को सबसे पहले लागू किया गया और अंततः 2005 में RTIA को लागू कर दिया गया. जैसे-जैसे ये विचार सरकारी तंत्र में गहराते चले गए, न्यायपालिका भी इसके अनुरूप अपने रवैये को ढालने लगी और सीधे तौर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 1 (a) का ठोस रूप में निर्वचन करने लगी और यह सिद्ध करने लगी कि “सूचनाएँ हासिल करने का नागरिकों का अधिकार” संविधान में अंतर्निहित है.

इसके अलावा, वैश्विक मानकों की भूमिका पर भी विचार किया जाना चाहिए. वैश्विक मानक, घरेलू प्रक्रियाओं के साथ मेल खाते थे और मौजूदा घरेलू विमर्श पर उसका ठोस और सक्रिय दोनों प्रकार का प्रभाव था. वे परिधि पर ही बने रहते हैं, जबकि पारदर्शिता संबंधी उभरने वाले विचार किनारे पर दिखाई पड़ते हैं. लेकिन 1989 तक जब ये विचार मुख्य धारा का हिस्सा बन चुके थे, उस समय वैश्विक मानक आंतरिक नीतिगत प्रक्रियाओं में समाहित होने लगे थे.

यह शोध दीर्घ काल तक, बहु-स्तरीय प्रक्रिया के तौर पर इस सरकारी तंत्र के अंदर ही विचारों के बढ़ते कार्य-कारण संबंध को दर्शाता है और उसने पारदर्शिता तक गुप्तता के मानक से संस्थागत बदलाव के लिए भावनात्मक आधार प्रदान किया है. यह दृष्टिकोण पसंद पर आधारित तर्कों को अधिक जटिल बना देता है, जिसके कारण नीचे से या अभिजात वर्ग की एजेंसी तक सामाजिक दबाव की भूमिका को बढ़ा देता है. इसके बजाय इस पुस्तक में एक आदर्शवादी परिवर्तन लाने का सुझाव दिया गया है. इसमें तर्क के आधार पर स्पष्ट किया गया है कि भारत की आजादी के बाद से उभरते विचारों के व्यापक संचयी आघात ने ठोस मानदंडों और नीतियों को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और अंततः शासन-तंत्र की सोच पर गहरा प्रभाव पड़ा है. इन विचारों के बढ़ते महत्व और राजनैतिक सत्ता के कारण 2005 में यह सोच एक महत्वपूर्ण बिंदु तक पहुँच गई जिसके परिणामस्वरूप सूचना-अधिकार अधिनियम लागू हो गया. इन विचारों की शक्ति इतनी प्रबल थी कि आज़ादी से लेकर अब तक पारदर्शिता का विरोध करने वाली सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को 2005 में सूचना हासिल करने का कानून बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा. आंतरिक सरकारी कागज़-पत्रों, पुरातत्व की सामग्री और साक्षात्कारों के आधार पर यह पुस्तक हमें आश्वस्त कर देती है कि संस्थागत बदलाव की पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें विचारों, शासन तंत्र, इतिहास और अंदर ही अंदर विकसित प्रक्रियाओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. 

हिमांशु झा हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में लेक्चरर और रिसर्च फ़ैलो हैं. वह Capturing Institutional Change: The Case of the Right to Information Act 2005 (Oxford University Press, 2020) के लेखक हैं.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919