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शहरी भारत में प्रवासी श्रमिकों के विरुद्ध भेदभाव की जाँचः चुनावी कनेक्शन

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26/10/2020
निखर गायकवाड़ एवं गैरेथ नैलिस

कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान भारत में बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों ने अपने घर लौटते समय और आवश्यक सेवाएँ जुटाने के लिए बहुत तकलीफ़ें झेलीं. देश के तीव्र शहरीकरण के कारण काम-धंधे की तलाश में श्रमिक भारी संख्या में गाँवों से शहरों की ओर पलायन करने लगे और इस तरह एक बड़ी आबादी के स्थानांतरण की प्रक्रिया शुरू हो गई. कई लोगों को इस बात में संदेह है कि भारत के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण कारण भूसांख्यिकीय स्थानांतरण है. फिर भी महामारी के शुरुआती दिनों में स्थानांतरण करने वाले श्रमिकों के प्रति दुर्व्यवहार के अनेक मामले सामने आए. इसे एकबारगी घटना भी नहीं माना जा सकता. 2014 की बेज़बरौह की रिपोर्ट में यह दर्शाया गया है कि उत्तरपूर्वी प्रवासियों को देश भर में अपने शहर के ठिकाने पर पहुँचने पर शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा. हाल ही में मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और अन्य अनेक राज्यों में भूमिपुत्रों की नौकरियों के संरक्षण के लिए नौकरियों में स्थानीय कोटा लागू कर दिया गया, ताकि केवल स्थानीय लोगों को ही रोज़गार मिले और बाहरी लोगों को स्थानीय नौकरियों में आने से रोका जा सके. भारत में प्रवासी श्रमिक-विरोधी “भूमिपुत्र” आंदोलन के मंच से जुड़े दलों के बारे में मैरी कट्ज़ेन्स्टेन और माइरन वाइनर ने सत्तर के दशक में ही पहले काफ़ी विस्तार से लिख दिया था.

भारत के संघीय ढाँचे की दृष्टि से यह चिंताजनक संकेत है. उन्होंने बहुत-से महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं, जिनसे मौजूदा शोध के एजेंडा की रूपरेखा तैयार करने में मदद मिली है. भारत के आंतरिक प्रवासी श्रमिकों के साथ कितने व्यवस्थित ढंग से इतना क्रूर भेदभाव होता है ? प्रवासी श्रमिकों का वह कौन-सा वर्ग है जो अपने-आपको हाशिये पर महसूस करता है? प्रवासी श्रमिकों के साथ जो असमान बर्ताव किया जाता है, उसका कारण क्या है? और उनके हालात को सुधारने के लिए कौन-से नीतिगत उपाय किये जा सकते हैं ?

कुछ सैद्धांतिक प्राथमिकताएँ
आंतरिक प्रवासन के बारे में जनमत को प्रभावित करने वाले तत्वों को समझना हमारा आरंभिक उद्देश्य था. पहले से किये गए सामाजिक और वैज्ञानिक कार्यों से दो प्रकार की प्रमुख व्याख्याएँ समझ में आती हैं कि आखिर स्थानीय लोग बाहर से आने वाले नये प्रवासी श्रमिकों के खिलाफ़ क्यों हैं?  बाहरी श्रमिकों के प्रति नकारात्मक भूमिका अपनाने का कारण है, अज्ञात लोगों के प्रति नापसंदगी की मूल भावना. इस दृष्टि से स्थानीय लोग अपने शहरी समाज, जिसमें वे रहते हैं, उसके मौजूदा जातीय ढाँचे को बनाये रखना चाहते हैं; भारी मात्रा में प्रवासियों के आने से  जातीय-सांस्कृतिक “विलयन” का खतरा मंडराने लगता है. इस बीच एक कारण और सामने आया है और वह है आर्थिक चिंताओं का दबाव. भारत में बेरोज़गारी की दर बहुत ऊँची रहती है. यह आशंका बनी रहती है कि अन्य क्षेत्रों से श्रमिक बाज़ार में प्रवेश करने के इच्छुक श्रमिकों के आने से स्थानीय श्रमिकों की दिहाड़ी कम हो जाएगी या उनके पास कोई काम-धंधा नहीं रह जाएगा. प्रवासी श्रमिकों के आने से उन तमाम सेवाओं की खपत भी बढ़ जाती है, जिन पर पहले से ही बहुत दबाव होता है और कराधान में भी उनके योगदान की कोई संभावना नहीं रहती.

जैसा कि हम देखते हैं कि इन बातों का सचमुच असर तो होता है, लेकिन इससे पूरी तस्वीर सामने नहीं आती. आंतरिक प्रवासी कुछ खास मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय आप्रवासियों से अलग होते हैं, जैसे, वे जहाँ भी जाते हैं, उनका संवैधानिक मताधिकार बना रहता है. भारत के जीवंत और प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में वोट बैंक के रूप में प्रवासियों की बड़ी भूमिका रहती है. यही कारण है कि यह वोट बैंक प्रवासियों के विलयन में या इसके पक्ष में या विरोध में काम करने के लिए नागरिकों और राजनैतिक आकाओं को बुनियादी तौर पर प्रोत्साहनों में संशोधन करने के लिए प्रेरित कर सकता है. 

साक्ष्य जुटानाः प्रवासी समूहों के बारे में स्थानीय लोग क्या सोचते हैं?
अपने पहले अध्ययन में हमने अपना ध्यान मुंबई पर केंद्रित किया, क्योंकि यह भारत में देसी राजनीति का प्रमुख केंद्रबिंदु है और शिवसेना और उससे निकले दल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का केंद्र स्थल है. हमने हाल ही में मुंबई आने वाले प्रवासी श्रमिकों के संबंध में मुंबईवासियों के दृष्टिकोण के निर्धारक तत्वों की खोज के प्रयोजन से शहर की आबादी के प्रतिनिधि नमूने के आधार पर फ़ील्ड सर्वेक्षण किया. काल्पनिक प्रवासी श्रमिक का एक ऐसा चित्र उभरता है, जो अति कुशल भी हो सकता है और अति कुशल नहीं भी हो सकता है और उसका नाम स्पष्टतः हिंदू हो सकता है और मुस्लिम भी. (नब्बे के दशक के आरंभ में हुए बाबरी दंगे के बाद से मुंबई में धर्म के नाम पर साफ़ तौर पर दरार पड़ गई है.) तब हमने उत्तरदाताओं से उनकी यह इच्छा जानने के लिए कुछ सवाल पूछे कि क्या वे चाहते हैं कि ऐसे प्रवासी श्रमिक उनके शहर में रहें और क्या वे उनके मतदान के अधिकार का समर्थन करते हैं.

हमारे अध्ययन के परिणाम प्रवासी श्रमिक-विरोधी पक्षपात के लिए आर्थिक आधार संबंधी तर्कों की पुष्टि करते हैं. समग्र रूप में अति कुशल प्रवासी श्रमिकों को कम कुशल प्रवासी श्रमिकों के मुकाबले अधिक वरीयता दी जाती है. हालाँकि यह हैरानी की बात है कि कम कुशल प्रवासी श्रमिकों की नापसंदगी कम कुशल उत्तरदाताओं में ही केंद्रित थी : श्रम बाज़ार में जिनकी आर्थिक मज़बूती सबसे अधिक अनिश्चित है और जो सरकारी सेवाओं पर सबसे अधिक निर्भर हैं. इसलिए प्रमुख तार्किक सरोकार तो यही दर्शाते हैं कि इनसे प्रवासी श्रमिकों का अनादर होता है.

मुंबई में कम आय वाले उत्तरदाता अति कुशल प्रवासी श्रमिकों को खास तौर पर पसंद करते हैं और उच्च आय वाले उत्तरदाता उदासीन रहते हैं.

जातीयता पर हमारे परिणामों में समानता नहीं है. बहुमत समुदाय वाले हिंदू उत्तरदाताओं ने सह-जातीय पक्षपात का समर्थन नहीं किया: वे भावी प्रवासी श्रमिकों के धार्मिक संबंधों के प्रति उदासीन थे. इसके विपरीत, अल्पसंख्यक समुदाय वाले मुस्लिम उत्तरदाताओं का सह-जातीयता के प्रति पक्षपात बहुत गहरा था. फिर भी लंबे समय से मुंबई में रहने वाले मुस्लिम निवासियों ने हिंदू प्रवासी श्रमिकों का मूल्यांकन करते समय केवल उनके कौशल के स्तर पर ध्यान दिया; उनके लिए मुसलमानों का कौशल का बखान कोई मायने नहीं रखता था.

आँकड़ों का गहन विश्लेषण करते समय हमने पाया कि समूहों की ताकत के आधार पर विचार करने से यह स्पष्ट करने में मदद मिलती है कि बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की सोच में क्या अंतर होता है. सहजातीय पक्षपात की भावना राजनैतिक दृष्टि से सक्रिय मुस्लिम उत्तरदाताओं में अधिक होती है. इसके अलावा, मुस्लिम उत्तरदाता चुनाव में (हिंदुओं के बजाय) मुस्लिम प्रवासी श्रमिकों का पूरा समर्थन पाने के लिए खास तौर पर ज़ोर देते हैं. शहर में अल्पसंख्यकों की कमज़ोर स्थिति को देखते हुए और खास तौर पर तब जब उन्हें लगता हो कि प्रशासन और शासन के लगभग हर क्षेत्र में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है तो उन्हें लगता है कि  चुनाव में “उनके पक्ष में मतदाताओं की पर्याप्त संख्या जुटाने के लिए” सहजातीय प्रवासन ही एकमात्र उपाय है.

क्या राजनेता भी प्रवासी श्रमिक-विरोधी पक्षपात दिखाते हैं ?
हमारी मुंबई परियोजना इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि देसी आबादी प्रवासी श्रमिकों की नई जमात के प्रति क्या रुख रखती है. फिर भी, प्रवासी श्रमिकों के बहिष्करण की प्रक्रिया में एकमात्र लिंक है जनमत को अपनी ओर करना. कम से कम राजनैतिक आकाओं का रुख और व्यवहार भी उतना ही ज़रूरी है. यही कारण है कि हम जानना चाहते थे कि शहर के निवासियों को सेवाएँ प्रदान करने वाले अगली पंक्ति के लोग दुर्लभ संसाधन बाँटते समय प्रवासी श्रमिकों को वरीयता देते हैं या लंबे समय से शहर में रहने वाले निवासियों को. यह संकेत देने का तर्क काफ़ी जोरदार है कि वे ऐसा कर सकते हैं.

देसी लोगों की तरह राजनेता भी बाहरी लोगों के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं. वे भी लंबे समय से शहर में रहने वाले निवासियों को सामाजिक और आर्थिक संसाधन प्रदान करते समय वरीयता प्रदान कर सकते हैं. इतना ही नहीं, राजनैतिक रणनीति गणनाओं पर आधारित होने लगी है. हम मानते हैं कि राजनेता प्रार्थी नागरिकों को उनके विश्वास के विरुद्ध जाकर सहायता प्रदान करते समय उसके परिणामों और लागत के बारे में यह सोच कर ही कोई कदम उठाते हैं कि उनकी यह मदद वोटों में तब्दील होगी या नहीं और अंततः उनका फिर से चुना जाना ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहता है.

चूँकि आंतरिक प्रवासन की प्रक्रिया में अधिकांश प्रवासी श्रमिकों की भागीदारी मौसमी ही होती है और चूँकि गंतव्य शहर में मतदान के लिए दुबारा पंजीकरण की प्रक्रिया जटिल हो सकती है, इसलिए शहर में होने वाले चुनावों में वे कम संख्या में भाग ले पाते हैं. यही कारण है कि राजनेता लंबे समय से शहर में रहने वाले उन निवासियों की तुलना में प्रवासी श्रमिकों पर कम भरोसा करते हैं. यदि यह सही है तो प्रवासी श्रमिक अपनी समस्याओं के समाधान के लिए स्थानीय राजनेताओं से संपर्क करने में कतरा सकते हैं. 

हमने इन दावों के मूल्यांकन के लिए लेखा परीक्षा के प्रयोग का अभियान चलाया था. हमने 28 शहरों के नगर पार्षदों को 2,933 पत्र लिखकर भेजे थे. हर पत्र में आम तौर पर विधान सभा के क्षेत्र में पार्षदों द्वारा दी जाने वाली सेवा के प्रकार के बारे में पूछा गया थाः उदाहरण के लिए, सड़क की बत्ती ठीक करवाने में या आय प्रमाणपत्र प्राप्त करने में मदद करना. इन पत्रों में अनुरोध करने वाले (फ़र्जी) नागरिकों को पहचानने के लिए अनेक तरकीबें भी बताई गई थीं. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इनमें से आधे लोग शहर में रहने वाले वे “देसी” लोग थे, जिनका सारा जीवन शहर में ही बीता है, जबकि दूसरे लोग वे थे जो यह दावा करते हैं कि “हाल ही में वे भारत के किसी राज्य से शहर में आए हैं.” पत्र में स्थानीय फ़ोन नंबर दिया गया था और वापस फ़ोन करने के लिए कहा गया था.

पार्षदों से वापस फ़ोन पाने की संभावना रखने वाले प्रार्थी परिचित प्रवासी श्रमिकों की संख्या स्थानीय परिचित प्रार्थियों से कम निकली. इनमें 24 प्रतिशत का अंतर था. लगता है कि प्रवासी श्रमिकों की अनदेखी के प्रसंग नियमित ही दिखाई देते हैं और भारत के राजनैतिक परिदृश्य में उनकी अनदेखी आम बात है, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि इन परिणामों के पैटर्न से इस प्रकरण की पुष्टि नहीं होती कि राजनेता प्रवासी श्रमिकों से व्यक्तिगत तौर पर घृणा करते हैं और न ही अपने व्यवहार में वे स्थानीय लोगों को वरीयता देते हैं.

इसके बजाय साक्ष्य से चुनावी गणित का नियम पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है. अनुवर्ती लेखा परीक्षा का प्रयोग इस बार SMS के पाठ संदेशों के माध्यम से किया गया. इस बार हमने न केवल प्रार्थियों के देसी / प्रवासी श्रमिक की हैसियत में परिवर्तन कर दिया, बल्कि उनकी राजनैतिक विशेषताओं में भी परिवर्तन कर दिया- भले ही वे स्थानीय तौर पर मतदान के पंजीकरण का दावा ही क्यों न करते हों. इस विशेषता का उल्लेख करने से प्रतिक्रियाओं पर बहुत बड़ा असर पड़ा. संभावना तो यही थी कि “अपंजीकृत” प्रवासी श्रमिकों के मुकाबले “पंजीकृत” प्रवासी श्रमिकों के पास पार्षदों के उत्तर अधिक आएँगे, लेकिन “पंजीकृत” देसी लोगों की तुलना में भी उनके उत्तर लगभग समान ही थे. दूसरे शब्दों में पंजीकरण की हैसियत का स्पष्टीकरण देने से प्रवासी-विरोधी का दोष मिट गया.

प्रवासी श्रमिकों के प्रति उनकी अनदेखी के संबंध में भागीदारी के कम मामलों के बारे में राजनेताओं के विश्वास की अंतिम जाँच के लिए हमने कुछ राजनेताओं के सबसैट का संक्षिप्त सर्वेक्षण किया. इस सर्वेक्षण में हमने एक काल्पनिक नागरिक को सामने रखा जो स्थानीय निवासी भी हो सकता था और प्रवासी श्रमिक भी और हमने राजनेताओं से सीधा-सा सवाल किया कि वे ऐसे नागरिकों के बारे में क्या सोचते हैं जिनके मतदान के लिए पंजीकरण उनके वार्ड में किया गया हो. राजनेताओं ने राज्य में प्रवासन के माध्यम से आए प्रवासी श्रमिकों के मुकाबले स्थानीय निवासियों को यह कहते हुए औसतन 46 प्रतिशत अधिक पॉइंट दिये कि ऐसे व्यक्ति का पंजीकरण स्थानीय रूप में होगा और चुनावी कनेक्शन के लिए उनके प्रकरण की बाद में पुष्टि हो जाएगी.

शहर में मतदान के लिए विभिन्न प्रकार के शहरी नागरिकों के पंजीकरण के बारे में पार्षदों की धारणा


आगे क्या होगा
?
कुछ स्पष्ट नीतिगत निहितार्थ निम्नलिखित हैं.

प्रवासी श्रमिकों और उनकी पैरवी करने वाले लोगों को इस तथ्य के प्रति सावधान हो जाना चाहिए कि कम टर्न आउट से जुड़ी इस समूह की प्रतिष्ठा के कारण उनके हितों को नुक्सान पहुँच सकता है. शहरी चुनावों में मतदान के लिए सामूहिक रूप में पंजीकरण कराने और ऐसे अभियानों को प्रचारित करने से प्रवासी श्रमिकों की कल्याणकारी योजनाओं को उठाने पर दूर तक असर पड़ सकता है. प्रवासन करने वाले श्रमिकों के लिए मतदाता पंजीकरण की प्रक्रिया को व्यवस्थित और सरल बनाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है. उन तमाम शहरों में जहाँ प्रवासी श्रमिक आते हैं और वहाँ के कई स्थानीय श्रमिक, खास तौर पर वे श्रमिक जो बहुत अधिक कुशल नहीं हैं, गहन असुरक्षा की भावना से गुज़रते हैं, इसलिए हमें रोज़गार की स्थिति पर नये सिरे से ध्यान देने की ज़रूरत है. प्रवासी श्रमिकों के लिए वातावरण में तब तक सुधार नहीं आ सकता, जब तक कि शहरों में लंबे समय से रहने वाले निवासियों के लिए आवश्यक रोज़गार के अवसरों में इजाफ़ा नहीं हो जाता. यह देखना ज़रूरी है कि हमारे परिणाम शून्य की स्थिति में टिके नहीं रह सकते. हमारे परिणाम शहरी अनौपचारिकता (उदाहरण के लिए, ऐडम आउरबैच और तारिक थचिल के कार्य), राज्य पर नागरिकों द्वारा दावे करना (जेनिफर बुसेल और गैब्रिएल क्रुक्स-विस्नर) और भारत में चुनावी समावेश को बढ़ावा देने और उसके बाद के तरीकों पर की गई अग्रणी शोध पर आधारित हैं. भावी कार्यों में लोकतंत्र और गतिशीलता के समावेश से जुड़े हमारे परिणामों को जोड़कर देखा जाना चाहिए.

निखर गायकवाड़ कोलंबिया विश्वविद्यालय में राजनैतिक विज्ञान के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

गैरेथ नैलिस कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डियागो में राजनैतिक विज्ञान के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.   

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919