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मानसून की योजनाः भारत के डूबते शहरों का भविष्य

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28/09/2020
देबजानी भट्टाचार्य

20 मई, 2020 को एक भयानक चक्रवात का बवंडर बंगाल की खाड़ी से टकराया और उसने सुंदरबन के तटबंध को तोड़कर कोलकाता के बड़े हिस्से को जलमग्न कर दिया. पर्यावरण की नियमित विनाश लीला की तरह यह कांड भी हर छमाही में तबाही मचा देता है. इस भयानक चक्रवात के साथ जो बवंडर और ज्वार-भाटा आता है, वह डेल्टा पारिस्थितिकी और इस क्षेत्र के जलविज्ञान के साथ-साथ इस कंक्रीट महानगर की अग्रभूमि में भी विचित्र ढंग से कहीं गहरे में अंतर्निहित हो गया है. कोलकाता की सड़कों से होकर बुदबुदाते और तेज़ प्रवाह से बहते हुए इस पानी ने कोलकाता शहर के नगर निगम को सुंदरबन की खाड़ी की सदाबहार वनभूमि से अलग करने वाली मानव-निर्मित तमाम प्रशासनिक सीमाओं को ध्वस्त कर दिया. शहरी नियोजन, वानिकी और समुद्र विज्ञान जैसे अनुशासनिक ज्ञान से ही शहर, नदी, सिंचाई और वन विभाग का प्रशासनिक सीमांकन होता है. फिर भी ज्यों-ज्यों कोलकाता अपने पूर्वी किनारे पर बने लक्ज़री अपार्टमेंटों की चहारदीवारी में बंद कंक्रीट समुदायों के माध्यम से फैलता जा रहा है, त्यों-त्यों बंगाल की खाड़ी का गर्म होता पानी शहरी जलमंडल को गाद भरे तटवर्ती इलाके की खाड़ियों और जंगलों से बहुत अच्छी तरह से जोड़ता रहता है.

अब तक यह नज़ारा झीलों में ही दिखाई पड़ता था, लेकिन जैसे ही चक्रवात अम्फान के बाद आर्द्रभूमि के ऊपर निर्मित बाढ़ग्रस्त कोलकाता हवाई अड्डे के हैंगर में आधे डूबे हुए हवाई जहाजों के चौंका देने वाले चित्र सामने आए तो हममें से कुछ लोग स्तब्ध रह गए. हमने सड़कों पर तेज़ी से बहते पानी को भी देखा, जिसमें उत्तरी कोलकाता की कॉलेज स्ट्रीट पर स्थित एशिया के दूसरे सबसे बड़े पुस्तक भंडार की पुस्तकें बह रही थीं. उस पल ऐसा लगा कि डेल्टा ने हमें अपने विस्मृत जल के उत्स का स्मरण करा दिया हो. इस बीच बढ़ते प्रदूषण और कार्बन के उत्सर्जन के कारण मानसून भी अस्थिर होता जा रहा है जिसके कारण जनवरी, 2020 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग को भी अंततः मानसून के आगमन की तारीखों को बदलने के लिए विवश कर दिया. इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि हम अतीत का पता लगाएँ और हिंद महासागर के गर्म पानी और उष्णकटिबंधीय मानसून प्रणाली के माध्यम से भारत के शहरों के भविष्य का अनुसंधान करें.

यह कहानी केवल कोलकाता का नहीं है. पिछले कुछ सप्ताहों में भारत के अपेक्षाकृत सूखे उत्तर पश्चिमी इलाकों में भारी बारिश के कारण जयपुर जैसे शहर भी बाढ़ग्रस्त हो गए थे और गुरुग्राम की सड़कें जलमग्न हो गई थीं. इस बीच मुंबई में अरब सागर का अतिक्रमण हर साल की घटनाएँ होने लगी हैं. चेन्नई में पानी के संकट का दोमुखी चरित्र दिखाई देने लगा. 2015 में आई बाढ़ से यह स्पष्ट हो गया था कि रियल इस्टेट के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए जल निकायों को भरने के परिणामस्वरूप ही यह बाढ़ आई थी. लेकिन 2015 की भयानक बाढ़ के बाद और 2019 में शहर ‘डे ज़ीरो” तक पहुँच गया था- उस दिन जब नगर के जलाशय पानी के अभाव में पूरी तरह सूख ही जाते. चेन्नई के जल संकट के मूल कारण की चर्चा करते हुए कर्मठ कार्यकर्ता और विद्वान् नित्यानंद जयरामन ने कहा था कि जल संकट का मूल कारण है शहर का अपने पानी के मूल स्रोत से कट जाना. यह कहा जा सकता है कि कोलकाता और मुंबई में नदियों, समुद्रों, दलदल और गंदे नाले में पानी बढ़ने के कारण अतिरिक्त पानी सड़कों और घरों तक पहुँच गया, लेकिन इस जल संकट का मूल कारण यही है कि पिछली एक-डेढ़ सदी से न तो न्यायालयों के निर्णयों को लागू किया गया और न ही निर्धारित योजना के अनुसार लिये गए निर्णयों को कार्यान्वित किया गया. यदि हम कोलकाता के शहरीकरण के इतिहास की ओर नज़र दौड़ाएँ तो हम अधिक सचेत होकर अपना ध्यान न केवल पाइप लाइन के बुनियादी ढाँचे पर केंद्रित रखेंगे, बल्कि ऊपर आसमान पर छाये बादलों पर और अपने शहर के चारों ओर फैली झीलों में, दलदल में और ज़मीन के नीचे के पानी पर भी केंद्रित करेंगे. असल में शहरी परिस्थितियों को समझने का यही मूलमंत्र है.

जब से स्वच्छ जल जाति और वर्ग की सीमाओं में बँधने लगा है, तब से पाइप बिछाकर पानी की सप्लाई के लिए ढाँचागत सुविधाओं पर ही ज़ोर दिया जाता रहा है, लेकिन दलदल, खाई और बादलों के पानी पर मुख्य धारा में चर्चा कम होने लगी है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो उन्नीसवीं सदी में औपनिवेशिक महानगरों का विशेष भविष्य इस तरह के पानी के कारण ही मुख्यतः बदबूदार धुएँ और प्लेग आदि बीमारियों के फैलने की आशंका से ग्रस्त रहता था. उदाहरण के लिए, औपनिवेशिक कोलकाता को ही देखें तो पाएँगे कि यहाँ के “जलवायु” को महामारी के स्रोत के रूप में देखा जाता था. यही कारण है कि उन्नीसवीं सदी के आरंभ से ही जलनिकासी के लिए इस शहर में दलदल, खाड़ियों, नहरों और समुद्र एवं खाड़ी के बीच नालियों के निर्माण को प्रचारित किया जाता रहा है. इसकी परिणति के रूप में रैनल्ड मार्टिन की 1856 की प्रसिद्ध रिपोर्ट Notes on the Medical Topography of Calcutta को देखा जा सकता है. इस रिपोर्ट में बुखारों के मानचित्र और शहर से जलनिकासी की योजनाएँ भी संलग्न की गई हैं.  

चूँकि इस रिपोर्ट में इसे नौकरशाह का कल्पित आदर्श शहर ही माना गया था, इसलिए इसकी किसी भी सिफ़ारिश को लागू नहीं किया गया. नौकरशाह के किसी दस्तावेज़ का जो हाल होता है, वही हाल इस रिपोर्ट का भी हुआ. इसके कुछ अंशों को उद्धृत किया गया, अनुच्छेदों में बाँटा गया, इसका संदर्भ दिया गया और कोलकाता के भविष्य पर होने वाली चर्चाओं में अनेक औपनिवेशिक प्रशासनिक लेखों के साथ इसकी प्रतियाँ संलग्न की गईं. आज मानसून के दिनों में इसी शहर की सड़कों पर नियमित रूप में पानी की धाराएँ बहती हैं. ऐसा नहीं है कि इस शहर के अधिकांश भागों में जलनिकासी की व्यवस्था नहीं है. बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में कोलकाता के चारों ओर बड़े पैमाने पर दलदली ज़मीन नये भूखंडों में बाँधकर लाभ कमाने वाली संपत्ति में बदली गयी, कोलकाता में विस्तृत भूमि-उधार योजनाएँ चलीं. इन सब योजनाएँ के कारण महामारी संबंधी बुखारों का भय थोड़ा कम था.

उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में कोलकाता के पश्चिमी तटों पर बहने वाली हुगली नदी के तट पर जमा कीचड़ से भरे लंबे स्थल या पूर्वी किनारों पर खारे पानी से भरी कच्छ भूमि फैलते हुए कोलकाता शहर के आकर्षक रियल इस्टेट बाज़ार की सेवा में ठोस संपत्ति के रूप में बदल गई थी. लाभकारी संपत्ति से जुड़ी एक खास तरह की सोच ने कोलकाता के इस कीचड़-भरे और दलदल वाले, भूमि-जल-क्षेत्र को बदलने योग्य प्लॉटों में रूपांतरित कर दिया, जिसे आसानी से फैलते हुए ज़मीन के बाज़ार के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जा सकता था.

1820 के दशक से ही खारे पानी की दलदल वाली भूमि पर और हुगली नदी के तट पर जमा कीचड़ भरी कछार की ज़मीन पर निजी भूमि को सार्वजनिक उपयोग के लिए प्राप्त करने के लिए आरंभिक कानूनी प्रयोग होने लगे थे. स्ट्रैंड रोड जैसी बड़ी सड़क बनाने के लिए ज़मीन कब्जे की जो कानूनी योजनाएँ चल रही थीं, उन्हें आर्थिक लाभ के दबाव में ही विस्तारित किया गया था. इसके अंतर्गत जो छोटी नहरें (खल) और नाले निजी या सांप्रदायिक स्वामित्व के तहत शहर के अंदर इधर-उधर बहते थे, उनका स्वामित्व पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के, और बाद में कोलकाता के क्राउन सरकार के हाथ में आ गया था.

बीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते तालाबों, दलदल भरी ज़मीनों और नहरों के जो विभिन्न उपयोग हमेशा से हो रहे थे, उनको भुला दिया गया और कोलकाता में शहरीकरण की सीमाओं पर कीचड़ भरे भूमिखंड उभर आए. यही हालात रंगून और  मुंबई जैसे शहरों में भी हुए. सक्रिय कामगारों की राजनीति और हाउसिंग का भयानक संकट इनके कारण ही पैदा हुआ. 1920 के दशक में होने वाले तेज़ वाद-विवाद ने यह साबित कर दिया कि अच्छा भू-स्वामी वही था जो दलदल वाली ज़मीन को हाउसिंग में परिवर्तित कर सके. इस प्रकार भूमि का विकास करनेवाले तबके का जन्म हुआ और शहरी राजनीति में उनकी प्रमुख भूमिका हो गई. “बेकार पड़ी” दलदल वाली ज़मीन पर हाउसिंग के विकास से लाभ कमाने की प्रक्रिया में पचास के दशक में खारे पानी वाली दलदल भरी ज़मीन के अंदर साल्ट लेक के संपन्न पड़ोस में हाउसिंग के निर्माण के लिए महँगी जलनिकासी के काम में तेज़ी आ गई. कोलकाता के पूर्वी किनारे की झीलों पर विकास की ऐसी गतिविधियाँ लगातार चलती रहीं और इसके कारण ही जल-ज़मीन पर रियल इस्टेट की सट्टेबाज़ी होती रही. बीसवीं सदी के मुंबई का भी यही हाल हुआ. मुंबई में अकूत मुनाफ़ा कमाने के लिए शहरीकरण की प्रक्रिया के रूप में समुद्र की ज़मीन को भरा जाने लगा.

अखिरकार अगर समकालीन कोलकाता में नियमित जलभराव से बाढ़ आई या 2050 तक मुंबई के कुछ हिस्सों के जलमग्न होने के अनुमान होने लगे, तो क्या यह हैरानी की बात है? यह सब होने में पूरा शतक लग गया है. यह कहना बहुत आसान है कि सिर्फ़ डिज़ाइन की गल्तियों के कारण ही ऐसा हो रहा है. वास्तव में यह सही नहीं है. बल्कि इसका कारण यह है कि दलदल भरी ज़मीन को आर्थिक तौर पर बेकार ज़मीन मानकर उसे लाभकारी हाउसिंग में बदल दिया गया और उन तमाम खाड़ियों व नालों को बंद कर दिया गया, जिनसे पानी का प्रवाह बना रह सकता था. इसी बात की पुष्टि करते हुए जयरामन ने कहा था कि हर शहर का उसके पानी से रिश्ता टूट गया है, भले ही यह पानी आसमान से बरसता हो या शहर के चारों ओर के समुद्र और खाड़ियों में ज़मीन से अंदर ही अंदर मिल जाता हो. सवाल यह उठता है कि क्या हमें शहरी हालात पर चर्चा करते समय जलमंडल पर चर्चा नहीं करनी चाहिए और इस बात की छानबीन नहीं करनी चाहिए कि पानी का प्रवाह कहाँ बाधित हो गया है या बंद हो गया है या कहाँ जलधारा लुप्त हो गई है. जो पानी हमारे नलों में बहता है या हमारे मिट्टी में से उभरता है, या जलाशय, समुद्र, झील, और बादल में रहता है, क्या हम उस पानी को नगरीय भूमि के भविष्य का एक अभिन्न और अविभाज्य अंग मान सकेंगे?

देबजानी भट्टाचार्य ड्रैक्सल विश्वविद्यालय में इतिहास और शहरी अध्ययन के सह प्रोफ़ेसर हैं और CASI के अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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